गंगाजल में अमृत देखाई नहीं देता, सती का तेज देखाई नहीं देता, जति का सवरूप देखाई नहीं देता, पत्थर में भगवान् देखाई नहीं देता, ठीक उसी परकार शाबर मन्त्रों कि अदभूत शक्ति दिखाई नहीं देती। परन्तु प्रयोग कर और आज़मा कर देखिये - दुनिया को हिला कर रख दे ऐसी शक्ति इसमें समाई हुई है -
कार्य सिध्द्दि गोरखनाथ मन्त्र
मन्त्रः-
“ॐ गों गोरक्षनाथ महासिद्धः, सर्व-व्याधि विनाशकः ।
विस्फोटकं भयं प्राप्ते, रक्ष रक्ष महाबल ।। १।।
यत्र त्वं तिष्ठते देव, लिखितोऽक्षर पंक्तिभिः ।
रोगास्तत्र प्रणश्यन्ति, वातपित्त कफोद्भवाः ।। २।।
तत्र राजभयं नास्ति, यान्ति कर्णे जपाः क्षयम् ।
शाकिनी भूत वैताला, राक्षसा प्रभवन्ति न ।। ३।।
नाऽकाले मरणं तस्य, न च सर्पेण दश्यते ।
अग्नि चौर भयं नास्ति, ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं गों ।। ४।।
ॐ घण्टाकर्णो नमोऽस्तु ते ॐ ठः ठः ठः स्वाहा ।।”
विधिः- यह मंत्र तैंतीस हजार या छत्तीस हजार जाप कर सिद्ध करें । इस मंत्र के प्रयोग के लिए इच्छुक उपासकों को पहले गुरु-पुष्य, रवि-पुष्य, अमृत-सिद्धि-योग, सर्वार्त-सिद्धि-योग या दिपावली की रात्रि से आरम्भ कर तैंतीस या छत्तीस हजार का अनुष्ठान करें । बाद में कार्य साधना के लिये प्रयोग में लाने से ही पूर्णफल की प्राप्ति होना सुलभ होता है ।
विभिन्न प्रयोगः- इस को सिद्ध करने पर केवल इक्कीस बार जपने से राज्य भय, अग्नि भय, सर्प, चोर आदि का भय दूर हो जाता है । भूत-प्रेत बाधा शान्त होती है । मोर-पंख से झाड़ा देने पर वात, पित्त, कफ-सम्बन्धी व्याधियों का उपचार होता है ।
१॰ मकान, गोदाम, दुकान घर में भूत आदि का उपद्रव हो तो दस हजार जप तथा दस हजार गुग्गुल की गोलियों से हवन किया जाये, तो भूत-प्रेत का भय मिट जाता है । राक्षस उपद्रव हो, तो ग्यारह हजार जप व गुग्गुल से हवन करें ।
२॰ अष्टगन्ध से मंत्र को लिखकर गेरुआ रंग के नौ तंतुओं का डोरा बनाकर नवमी के दिन नौ गांठ लगाकर इक्कीस बार मंत्रित कर हाथ के बाँधने से चौरासी प्रकार के वायु उपद्रव नष्ट हो जाते हैं ।
३॰ इस मंत्र का प्रतिदिन १०८ बार जप करने से चोर, बैरी व सारे उपद्रव नाश हो जाते हैं तथा अकाल मृत्यु नहीं होती तथा उपासक पूर्णायु को प्राप्त होता है ।
४॰ आग लगने पर इक्कीस बार पानी को अभिमंत्रित कर छींटने से आग शान्त होती है ।
५॰ मोर-पंख से इस मंत्र द्वारा झाड़े तो शारीरिक नाड़ी रोग व श्वेत कोढ़ दूर हो जाता है ।
६॰ कुंवारी कन्या के हाथ से कता सूत के सात तंतु लेकर इक्कीस बार अभिमंत्रित करके धूप देकर गले या हाथ में बाँधने पर ज्वर, एकान्तरा, तिजारी आदि चले जाते हैं ।
७॰ सात बार जल अभिमंत्रित कर पिलाने से पेट की पीड़ा शान्त होती है ।
८॰ पशुओं के रोग हो जाने पर मंत्र को कान में पढ़ने पर या अभिमंत्रित जल पिलाने से रोग दूर हो जाता है । यदि घंटी अभिमंत्रित कर पशु के गले में बाँध दी जाए, तो प्राणि उस घंटी की नाद सुनता है तथा निरोग रहता है ।
९॰ गर्भ पीड़ा के समय जल अभिमंत्रित कर गर्भवती को पिलावे, तो पीड़ा दूर होकर बच्चा आराम से होता है, मंत्र से १०८ बार मंत्रित करे ।
१०॰ सर्प का उपद्रव मकान आदि में हो, तो पानी को १०८ बार मंत्रित कर मकानादि में छिड़कने से भय दूर होता है । सर्प काटने पर जल को ३१ बार मंत्रित कर पिलावे तो विष दूर हो ।
लोक कल्याण-कारक शाबर मन्त्र
१॰ अरिष्ट-शान्ति अथवा अरिष्ट-नाशक मन्त्रः-
क॰ “ह्रीं हीं ह्रीं”
ख॰ “ह्रीं हों ह्रीं”
ग॰ “ॐ ह्रीं फ्रीं ख्रीं”
घ॰ “ॐ ह्रीं थ्रीं फ्रीं ह्रीं”
विधिः-उक्त मन्त्रों में से किसी भी एक मन्त्र को सिद्ध करें । ४० दिन तक प्रतिदिन १ माला जप करने से मन्त्र सिद्ध होता है । बाद में संकट के समय मन्त्र का जप करने से सभी संकट समाप्त हो जाते हैं ।
२॰ सर्व-शुभ-दायक मन्त्रः-
मन्त्र - ” ॐ ख्रीं छ्रीं ह्रीं थ्रीं फ्रीं ह्रीं ।”
विधिः- उक्त मन्त्र का सदैव स्मरण करने से सभी प्रकार के अरिष्ट दूर होते हैं । अपने हाथ में रक्त पुष्प (कनेर या गुलाब) लेकर उक्त मन्त्र का १०८ बार जप कर अपनी इष्ट-देवी पर चढ़ाए अथवा अखण्ड भोज-पत्र पर उक्त मन्त्र को दाड़िम की कलम से चन्दन-केसर से लिखें और शुभ-योग में उसकी पञ्चोपचारों से पूजा करें ।
३॰ अशान्ति-निवारक-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ क्षौं क्षौं ।”
विधिः- उक्त मन्त्र के सतत जप से शान्ति मिलती है । कुटुम्ब का प्रमुख व्यक्ति करे, तो पूरे कुटुम्ब को शान्ति मिलती है ।
४॰ शान्ति, सुख-प्राप्ति-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ ह्रीं सः हीं ठं ठं ठं ।”
विधिः- शुभ योग में उक्त मन्त्र का १२५ माला जप करे । इससे मन्त्र-सिद्धि होगी । बाद में दूध से १०८ अहुतियाँ दें, तो शान्ति, सुख, बल-बुद्धि की प्राप्ति होती है ।
५॰ रोग-शान्ति-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं फट् ।”
विधिः- उक्त मन्त्र का ५०० बार जप करने से रोग-निवारण होता है । प्रतिदिन जप करने से सु-स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । कुटुम्ब में रोग की समस्या हो, तो कुटुम्ब का प्रधान व्यक्ति उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित जल को रोगी के रहने के स्थान में छिड़के । इससे रोग की शान्ति होगी । जब तक रोग की शान्ति न हो, तब तक प्रयोग करता रहे ।
६॰ सर्व-उपद्रव-शान्ति-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ घण्टा-कारिणी महा-वीरी सर्व-उपद्रव-नाशनं कुरु कुरु स्वाहा ।”
विधिः- पहले इष्ट-देवी को पूर्वाभिमुख होकर धूप-दीप-नैवेद्य अर्पित करें । फिर उक्त मन्त्र का ३५०० बार जप करें । बाद में पश्चिमाभिमुख होकर गुग्गुल से १००० आहुतियाँ दें । ऐसा तीन दिन तक करें । इससे कुटुम्ब में शान्ति होगी ।
७॰ ग्रह-बाधा-शान्ति मन्त्रः-
मन्त्रः- “ऐं ह्रीं क्लीं दह दह ।”
विधिः- सोम-प्रदोष से ७ दिन तक, माल-पुआ व कस्तूरी से उक्त मन्त्र से १०८ आहुतियाँ दें । इससे सभी प्रकार की ग्रह-बाधाएँ नष्ट होती हैं ।
८॰ देव-बाधा-शान्ति-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ सर्वेश्वराय हुम् ।”
विधिः- सोमवार से प्रारम्भ कर नौ दिन तक उक्त मन्त्र का ३ माला जप करें । बाद में घृत और काले-तिल से आहुति दें । इससे दैवी-बाधाएँ दूर होती हैं और सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है ।
साबर साधनाएं : वैदिक अथवा तांत्रोक्त अनेक ऐसे मंत्र हैं, जिसमें साधना करने के लिए अत्यंत सावधानी की जरूरत होती है। असावधानी से कार्य करने पर प्रभाव प्राप्त नहीं होता अथवा सारा श्रम व्यर्थ चला जाता है, परंतु शाबर मंत्रों की साधना या सिद्धि में ऐसी कोई आशंका नहीं होती। यह सही है कि इनकी भाषा सरल और सामान्य होती है। माना जाता है कि लगभग सभी साबर साधनाओं और मंत्रों का अविष्कार गुरु गोरखनाथ ने किया है।
।।ओम गुरुजी को आदेश गुरजी को प्रणाम, धरती माता धरती पिता, धरती धरे ना धीरबाजे श्रींगी बाजे तुरतुरि आया गोरखनाथमीन का पुत् मुंज का छड़ा लोहे का कड़ा हमारी पीठ पीछे यति हनुमंत खड़ा, शब्द सांचा पिंड काचास्फुरो मन्त्र ईश्वरो वाचा।।
इस मन्त्र को सात बार पढ़ कर चाकू से अपने चारों तरफ रक्षा रेखा खींच ले गोलाकार, स्वयं हनुमानजी साधक की रक्षा करते हैं। शर्त यह है कि मंत्र को विधि विधान से पढ़ा गया हो।
साबर मंत्रों को पढ़ने पर ऐसा कुछ भी अनुभव नहीं होता कि इनमें कुछ विशेष प्रभाव है, परंतु मंत्रों का जप किया जाता है तो असाधारण सफलता दृष्टिगोचर होती है। कुछ मंत्र तो ऐसे हैं कि जिनको सिद्ध करने की जरूरत ही नहीं है, केवल कुछ समय उच्चारण करने से ही उसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देने लगता है। यदि किसी मंत्र की संख्या निर्धारित नहीं है तो मात्र 1008 बार मंत्र जप करने से उस मंत्र को सिद्ध समझना चाहिए।
अचूक एवं अत्यधिक शक्तिशाली
महामंत्र, इसकी सिद्धि से आपकी बात हर कोई मानेगा
आज हम आपको एक ऐसे शक्तिशाली मन्त्र के बारे में बताएंगे जिसका प्रभाव अचूक है तथा इस मन्त्र की सिद्धि द्वारा हर एक व्यक्ति आपकी बात मनेगा. किंतु ध्यान रहे इस विधि का दुरुपयोग या स्वहित के लिए प्रयोग निषिद्ध है और यदि किसी ने ऐसा किया तो उसे इसका दुष्परिणाम भुगतना ही होता है. क्या है वशीकरण सिद्ध करने की विधि: सबसे पहले आप ये जान लें कि वशीकरण का अर्थ होता है दूसरे व्यक्ति को अपने मनोनुकूल बनाना यानि ऐसा इंसान जिस पर वशीकरण का प्रयोग किया जाता है, उसे आपकी हर बात को मानना ही होता है भले ही ऐसा करने से उसका नुकसान क्यों न हो रहा हो. आज हम आपको अत्यन्त शक्तिशाली सिद्ध कुंजिका मन्त्र के बारे में बताने जा रहे है. सिद्ध कुंजिका स्तोत्रम् मार्कण्डेय पुराण के सप्तशती अध्याय का वह सिद्ध मंत्र है, जिसके द्वारा किसी भी इच्छित वस्तु की प्राप्ति की जा सकती है.
सिद्ध कुंजिका स्तोत्रम् मंत्र: ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे. ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं सः, ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल, ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा..
इस सिद्ध मंत्र को आप सप्तशती का सार मंत्र कह सकते हैं. सप्तशती के अन्य मंत्रों यथा कवच, कीलक, अर्गला आदि मंत्रों की अपेक्षा अकेले इसी मन्त्र का नियमित 108 बार जाप करने से आपको महान सिद्धि प्राप्त हो जाती है. यदि इस मंत्र को वास्तविक रूप में सिद्ध करना है तो इसके स्थापना मंत्र की जागृति के पश्चात निश्चित आसन पर समाधि की अवस्था में बैठकर अनवरत रूप से इसका एक लाख इक्यावन हज़ार बार जप आवश्यक है. ध्यान रहे कि मंत्र जाप के दौरान आप कातर भाव से प्रार्थनारत रहें और अगाध निष्ठा के साथ तेज स्वर में उच्चारण करें. उच्चारण पूर्णरूप से सही होना चाहिए और किसी भी रूप में ध्यान भंग नहीं होना चाहिए. इस मंत्र की सिद्धि के पश्चात आप जिस भी व्यक्ति पर इसका प्रयोग करना चाहें, उसका स्मरण करते हुए 108 बार मंत्र जाप करें, वो इंसान आपकी बात मानने के लिए विवश होगा.
अमोघ शिव गोरख प्रयोग
साधक को पुरे दिन निराहार रहना चाहिए, दूध तथा फल लिए जा सकते है. रात्री काल मे १० बजे के बाद साधक सर्व प्रथम गुरु पूजन गणेश पूजन सम्प्पन करे तथा अपने पास ही सद्गुरु का आसान बिछाए और कल्पना करे की वह उस आसान पर विराज मान है. उसके बाद अपने सामने पारद शिवलिंग स्थापित करे अगर पारद शिवलिंग संभव नहीं है तो किसी भी प्रकार का शिवलिंग स्थापीत कर उसका पंचोपचार पूजन करे. धतूरे के पुष्प अर्पित करे. इसमें साधक का मुख उत्तर दिशा की तरफ होना चाहिए. वस्त्र आसान सफ़ेद रहे या फिर काले रंग के. उसके बाद रुद्राक्ष माला से निम्न मंत्र का ३ घंटे के लिए जाप करे. साधक थक जाए तो बिच मे कुछ देर के लिए विराम ले सकता है लेकिन आसान से उठे नहीं. यह मंत्र जाप ३:३० बजने से पहले हो जाना चाहिए.
ॐ शिव गोरख महादेव कैलाश से आओ भूत को लाओ पलित को लाओ प्रेत को लाओ राक्षस को लाओ, आओ आओ धूणी जमाओ शिव गोरख शम्भू सिद्ध गुरु का आसन आण गोरख सिद्ध की आदेश आदेश आदेश
मंत्र जाप समाप्त होते होते साधक को इस प्रयोग की तीव्रता का अनुभव होगा. यह प्रयोग अत्यधिक गुप्त और महत्वपूर्ण है क्यों की यह सिर्फ महाशिवरात्री पर किया जाने वाला प्रयोग है. और इस प्रयोग के माध्यम से मंत्र जाप पूरा होते होते साधक उसी रात्री मे भगवान शिव के बिम्बात्मक दर्शन कर लेता है. एक ही रात्रि मे साधक भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त कर सकता है और अपने जीवन को धन्य बना सकता है. अगर इस प्रयोग मे साधक की कही चूक भी हो जाए तो भी उसे भगवान शिव के साहचर्य की अनुभूति निश्चित रूप से होती ही है.
साबर मंत्रो के सुप्त होने के मुख्य कारण –
१. यदि सभा में साबर मन्त्र बोल दिए जाये तो साबर मन्त्र अपना प्रभाव छोड़ देते है
२.यदि किसी किताब से उठाकर मन्त्र जपना शुरू कर दे तो भी साबर मन्त्र अपना पूर्ण प्रभाव नहीं देते
३.साबर मन्त्र अशुद्ध होते है इनके शब्दों का कोई अर्थ नहीं होता क्योंकि यह ग्रामीण भाषा में होते है यदि इन्हें शुद्ध कर दिया जाये तो यह अपना प्रभाव छोड़ देते है
४.प्रदर्शन के लिए यदि इनका प्रयोग किया जाये तो यह अपना प्रभाव छोड़ देते है !
५.यदि केवल आजमाइश के लिए इन मंत्रो का जप किया जाये तो यह मन्त्र अपना पूर्ण प्रभाव नहीं देते
ऐसे और भी अनेक कारण है उचित यही रहता है कि साबर मंत्रो को गुरुमुख से प्राप्त करे क्योंकि गुरु साक्षात शिव होते है और साबर मंत्रो के जन्मदाता स्वयं शिव है शिव के मुख से निकले मन्त्र असफल हो ही नहीं सकते
साबर मंत्रो के सुप्त होने का कारण कुछ भी हो इस विधि के बाद साबर मन्त्र पूर्ण रूप से प्रभावी होते है
|| मन्त्र ||
सत नमो आदेश! गुरूजी को आदेश ॐ गुरूजी ,ड़ार शाबर बर्भर जागे जागे अढैया और बराट
मेरा जगाया न जागेतो तेरा नरक कुंड में वास ,दुहाई शाबरी माई की,दुहाई शाबरनाथ की ,आदेश गुरु गोरख को,
|| विधि ||
इस मन्त्र को प्रतिदिन गोबर का कंडा सुलगाकर उसपर गुगल डाले और इस मन्त्र का १०८ बार जाप करे! जब तक मन्त्र जाप हो गुगल सुलगती रहनी चाहिये यह क्रिया आपको २१ दिन करनी है , अच्छा होगा आप यह मन्त्र अपने गुरु के मुख से ले या किसी योग्य साधक के मुख से ले ! गुरु कृपा ही सर्वोपरि है कोई भी साधना करने से पहले गुरु आज्ञा जरूर ले
|| प्रयोग विधि ||
जब भी कोई साधना करे तो इस मन्त्र को जप से पहले ११ बार पढ़े और जप समाप्त होने पर ११ बार दोबारा पढ़े मन्त्र का प्रभाव बढ़ जायेगा! यदि कोई मन्त्र बार बार सिद्ध करने पर भी सिद्ध न हो तो किसी भी मंगलवार या रविवार के दिन उस मन्त्र को भोजपत्र या कागज़ पर केसर में गंगाजल मिलाकर अनार की कलम से या बड के पेड़ की कलम से लिख ले फिर किसी लकड़ी के फट्टे पर नया लाल वस्त्र बिछाएं और उस वस्त्र पर उस भोजपत्र को स्थापित करे घी का दीपक जलाये , अग्नि पर गुगल सुलगाये और शाबरी देवी या माँ पार्वती का पूजन करे और इस मन्त्र को १०८ बार जपे फिर जिस मन्त्र को जगाना है उसे १०८ बार जपे और दोबारा फिर इसी मन्त्र का १०८ बार जप करे लाल कपडे दो मंगवाए और एक घड़ा भी पहले से मंगवा कर रखे जिस लाल कपडे पर भोजपत्र स्थापित किया गया है उस लाल कपडे को घड़े के अन्दर रखे और भोजपत्र को भी घड़े के अन्दर रखे दुसरे लाल कपडे से भोजपत्र का मुह बांध दे और दोबारा उस कलश का पूजन करे और शाबरी माता से मन्त्र जगाने के लिए प्रार्थना करे और उस कलश को बहते पानी में बहा दे घर से इस कलश को बहाने के लिए ले जाते समय और पानी में कलश को बहाते समय जिस मन्त्र को जगाना है उसका जाप करते रहे यह क्रिया एक बार करने से ही प्रभाव देती है पर फिर भी इस क्रिया को ३ बार करना चाहिये मतलब रविवार को फिर मंगलवार को फिर दोबारा रविवार को
भगवान् आदिनाथ और माँ शाबरी आप सबको मन्त्र सिद्धि प्रदान करे
2…शीघ्र फल-दायक सिद्ध शाबर मन्त्र
..शाबर मंत्रो को जगाने का पर्याय
अगर बहोत कोशिश करने पर मंत्र जागृत नहीं हो रहे हो तो इस साधना को करके कोई भी साबर मंत्र जग सकते हो आप ..इस साधना को कर इसे सार्थक करे ..( अगर फिर नहीं हुआ तो साबर कल्प्सिद्धि से तो होना ही होना है यह हमारा दावा है ( कल्प्सिद्धि एक विशेष क्रिया है )
मन्त्रः-
ॐ इक ओंकार, सत नाम करता पुरुष निर्मै निर्वैर अकाल मूर्ति अजूनि सैभं गुर प्रसादि जप आदि सच, जुगादि सच है भी सच, नानक होसी भी सच –
मन की जै जहाँ लागे अख, तहाँ-तहाँ सत नाम की रख ।
चिन्तामणि कल्पतरु आए कामधेनु को संग ले आए, आए आप कुबेर भण्डारी साथ लक्ष्मी आज्ञाकारी, बारां ऋद्धां और नौ निधि वरुण देव ले आए ।
प्रसिद्ध सत-गुरु पूर्ण कियो स्वार्थ, आए बैठे बिच पञ्ज पदार्थ ।
ढाकन गगन, पृथ्वी का बासन, रहे अडोल न डोले आसन, राखे ब्रह्मा-विष्णु-महेश, काली-भैरों-हनु-गणेश ।
सूर्य-चन्द्र भए प्रवेश, तेंतीस करोड़ देव इन्द्रेश ।
सिद्ध चौरासी और नौ नाथ, बावन वीर यति छह साथ ।
राखा हुआ आप निरंकार, थुड़ो गई भाग समुन्द्रों पार ।
अटुट भण्डार, अखुट अपार । खात-खरचत, कछु होत नहीं पार ।
किसी प्रकार नहीं होवत ऊना । देव दवावत दून चहूना ।
गुर की झोली, मेरे हाथ । गुरु-बचनी पञ्ज तत, बेअन्त-बेअन्त-बेअन्त भण्डार ।
जिनकी पैज रखी करतार, नानक गुरु पूरे नमस्कार ।
अन्नपूर्णा भई दयाल, नानक कुदरत नदर निहाल ।
ऐ जप करने पुरुष का सच, नानक किया बखान,
जगत उद्धारण कारने धुरों होआ फरमान ।
अमृत-वेला सच नाम जप करिए ।
कर स्नान जो हित चित्त कर जप को पढ़े, सो दरगह पावे मान ।
जन्म-मरण-भौ काटिए, जो प्रभ संग लावे ध्यान ।
जो मनसा मन में करे, दास नानक दीजे दान ।।”..
भक्तों को साधना काल में निम्न नियमों का पालन अनिवार्य है:-
• सर्वश्रेष्ट तो यह है की आप गुरु खोजें और उससे मंत्र प्राप्त करें.
• साधना काल में वाणी का असंतुलन, कटु-भाषण, प्रलाप, मिथ्या वचन आदि का त्याग करें। मौन रहने की कोशिश करें।
• निरंतर मंत्र जप अथवा इष्टत देवता का स्मरण-चिंतन करना जरूरी होता है।
• जिसकी साधना की जा रही हो, उसके प्रति मन में पूर्ण आस्था रखें।
• मंत्र-साधना के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति धारण करें।
• साधना-स्थल के प्रति दृढ़ इच्छा शक्ति के साथ साधना का स्थान, सामाजिक और पारिवारिक संपर्क से अलग होना जरूरी है।
• उपवास में दूध-फल आदि का सात्विक भोजन लिया जाए।
• श्रृंगार-प्रसाधन और कर्म व विलासिता का त्याग अतिआवश्यक है।
• साधना काल में भूमि शयन ही करना चाहि
शाबर मंत्र साधना में गुरु की आवश्यकता:-
• शाबर मंत्र साधना के लिए गुरु धारण करना श्रेष्ट होता है.
• गुरु साधना से उठने वाली उर्जा को नियंत्रित और संतुलित करता है जिससे साधना में जल्दी सफलता मिल जाती है.
• वैसे ये साधनाएँ बिना गुरु के भी की जा सकती हैं.
• शाबर साधना गुरु के आभाव में करने से पहले अपने इष्ट या भगवान शिव के मंत्र का एक पुरस्चरण यानि १,२५,००० जाप कर लेना चाहिए.
• इसके अलावा हनुमान चालीसा का नित्य पाठ भी लाभदायक होता है.
मन्त्र का विधान क्या है:-
मैं यंहा ये स्पष्ट कर देना चाहता हूँ की दिये गये शाबर मंत्र मन्त्र बिल्कुल निर्दोष है . कोई भी स्त्री या पुरुष इन मंत्रों का केवल सुबह शाम जाप करके लाभ ले सकता है . जैसे आप सुबह शाम पूजा करते हो वैसे ही बस जाप शाबर मंत्र अपने आप सिद्ध होते है, इन मंत्रों का बस थोड़ा सा
जप करना पड़ता है। ओर ये बहोत ज्यादा प्रभाव दिखते है। इन मंत्रों का प्रभाव स्थायी होता है ओरकिसी भी मंत्र से इनकी काट संभव नहीं है ओर ये कितना भी शक्तिशाली मंत्र हो उसको आराम
से काट सकते है।
गंगाजल में अमृत देखाई नहीं देता, सती का तेज देखाई नहीं देता, जति का सवरूप देखाई नहीं देता, पत्थर में भगवान् देखाई नहीं देता, ठीक उसी परकार शाबर मन्त्रों कि अदभूत शक्ति दिखाई नहीं देती। परन्तु प्रयोग कर और आज़मा कर देखिये – दुनिया को हिला कर रख दे ऐसी शक्ति इसमें समाई हुई है –
उच्चारण की अशुद्धता की संभावना और चरित्र की अपवित्रता के कारण कलियुग में वैदिक मंत्र जल्दी सिद्ध नहीं होते। ऐसे में लोक कल्याण और मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए सरल तथा सिद्धिदायक शाबर मंत्रों की रचना गुरु गोरखनाथ आदि योगियों ने की थी। शाबर मंत्रों की प्रशंसा करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है- ‘अनमलि आखर अरथ न जापू। शाबर सिद्ध महेश प्रतापू।।’भाइयो बहनों साबरमन्त्रों के चमत्कार से आप सब अपरिचित तो हैं नहीं, अनेक भाइयोबह्नों ने इसे किया भी है और रिजल्ट भी देखे हैं. हमने भीब्लॉग के माध्यम से दिया है परन्तु जो दैनकजीवन मेंअति उपयोगीहोने के साथ ही अति आवश्यक है….. साबरमन्त्र सीधे सादे सरल प्राकृत भाषा में लिखे होते हैं, देखने से पता ही नहीं चलताकि इन मन्त्र में असाधारण शक्ति और चमत्कार भी भरा हुआ है, भगवान गोरखनाथके समय से इन मन्त्रों की प्रसिद्धि हुई और कलियुग में तो ये मन्त्र अत्यधिक चमत्कारीऔर प्रभावशाली हैं, और तुरंत फल देने वाले हैं …… नकोई साधना सामग्री न कोई विशेस विधान, बस एक विशिष्ट समय में जप ही करनाहै……
सबसे बात है कि इन साधनाओ में न तो विशेस विधि विधान की आवश्यकता है और नही किसी कर्मकांड की, इन साधना कि विधि सरल होने के साथ शीघ्र फलदायी भीहै….. अतः किसी भी वर्ग के व्यक्ति कर सकते हैं….. गुरु की आज्ञा, गुरु की कृपा के बिना कोई भी मन्त्र या तंत्र या सिद्धि संभव नहीं अतः प्रथम गुरु पूजन, और मानसिक रूप से आशीर्वाद लेकर ही किसी भी साधना में प्रवर्त होना चाहिए, यही शिष्य या साधक का कर्म और धर्म होना चाहिए.
जब प्राचीन काल के ग्रंथों में उल्लेखित शास्त्रोक्त मंत्रों का दुरूपयोग होने लगा तब महर्षि विश्वामित्र के द्वारा शास्त्रोक्त मंत्रों को श्रापित तथा किलीत कर दिया गया तब से शास्त्रोक्त मंत्र की साधना तथा प्रयोग से सामान्य जन वंचित होने लगे तथा विशेष गुरू कृपा से प्राप्त मंत्र ही साधकों के लिए फलदायी होते थे। तथा अनेकों प्रकार के कठिनाईयों के बावजूद सिद्धीयाँ प्राप्त होती थी तथा सामान्य साधक शास्त्रोक्त मंत्रों के प्रभाव से वंचित रह जाते थे। यह देखकर भगवान शंकर द्वारा कलयुग के साधकों के हित को ध्यान में रखते हुए शाबर मंत्रों का निर्माण किया गया। उसके बाद नवनाथ संप्रदायों के द्वारा शाबर मंत्र के प्रचलन को आगे बढ़ाया गया।
शाबर मंत्रों की उत्पत्ति और रचना के बारे में पुराणों में वर्णन मिलता है कि भगवान शंकर और माता पार्वती ने जिस समय अजुर्न के साथ किरत वेश में युद्ध किया था उसी समय आगम चर्चा के दौरान माता पार्वती जी के प्रश्नों के उत्तर शिवजी ने दिये थे उन्ही भिन्न प्रदत मंत्रों को बाद में शाबर मंत्र कहा गया।
उसके बाद जब कलयुग प्रारंभ हो रहा था तब भगवान शंकर ने कलयुग के मनुष्यों के कल्याण की भावना को ध्यान में रखते हुये नाथ पंथ की स्थापना करने का विचार किया तथा इस कार्य में बह्म्र तथा विष्णु भी सहमत हो गये। भगवान शिव के इस विचार को क्रिया रूप में परिवर्तित करने के लिए ही महासती अनुसुइया को दिये गये वरदान के कारण उन तीनों ने अपने- अपने अंशद्वारा सती अनुसुइया के गर्भ से जन्म लिया ।
ब्रह्म के अंशरूप में चन्द्रमा शिव के अंश रूप में दुर्वासा ऋषि और विष्णु को अंश रूप में भगवान दत्तात्रेय का जन्म हुआ।बाद मे भगवान दत्तात्रेय नाथ पंथ के आदि गुरू बने क्योंकि इनके अन्दर ब्रहमा विष्णु और महेश तीनों देवताओं के अंश विद्यामान थे। मुख्यतः विष्णु का अंशरूप होने से भगवान विष्णु के चैतिस अवतारों में दत्तात्रेय अवतारों की गणना होती है। फिर नवनाथों की उत्पति हुई तथा भगवान दत्तात्रेय द्वारा नवनाथों को शिक्षा दिक्षा प्रदान किया गया तथा योग विद्या, अस्त्र विद्या, मंत्र, तप इत्यादि विषयों में पारंगतता प्रदान की गई । इन नवनाथों के अन्दर उतनी क्षमता थी कि ये कुछ ही पल में कोई भी कार्य कर सकते थे, इनके पास आकाश गमन सिद्धि, पाताल गमन मृत संजीवनी विद्या परकाया प्रवेश जैसी हजारों सिद्धियाँ थी उन्हीं नवनाथों के द्वारा शाबर मंत्रों का विस्तार किया गया। बाद में शाबर मंत्रों को सामान्यतः ग्रामीण बोलचाल पर प्रयोग होन वाले सामान्य भाषा में लिखा गया।
इसलिए यह मंत्र सरल तथा तीव्र प्रभावी होता है। शाबर मंत्रों की खासियत यह है कि मंत्रों के आखिर में मंत्र से संबंधित देवी देवताओं के आन अथवा कसम दिया जाता है। जिससे देवी-देवताओं को कसम की मर्यादा रखने के लिए साधक के इच्छित कार्यां को पूरा करना पड़ता है। आगे मैं कुछ शाबर मंत्रों के अलौकिक एवं दुर्लभ प्रयोग प्रस्तुत कर रहा हूँ। जिससे सामान्य साधक अथवा पाठक प्रयोग में लाकर लाभ उठा सकते हैं।
शाबर मंत्र प्रयोग विधि – सभी शाबर मंत्रों को सिद्ध करने से पहले शाबर मंत्र विधान द्वारा गुरू और गणेश की पूजा आराधना करनी चाहिए। तत्पश्चात् शरीर रक्षा मंत्रों के द्वारा शरीर की सुरक्षा कर लेनी चाहिए। गुरू स्थापना प्रयोग – सबसे पहले चारमुख का दिया जलाकर निम्न मंत्र द्वारा गुरू का आह्वान करना चाहिए।
मंत्र –
गुरू दिन गुरू बाती, गुरू सहे सारी राती, वास्तीक दियना, बार के गुरू के उतारां आरती।
इस मंत्र का सात बार जाप करें। फिर निम्न मंत्र द्वारा गुरू का ध्यान करना चाहिए। ध्यान मंत्र अपने शरीर को रक्षा :-
ध्यान मंत्र:- गुरू सठ-गुरू सठ गुरू है विर गुरू साहब सुमिरों बड़ी भाँत सिगीं टोरों बनकहों मननाऊँ करतार सकल गुरू की हरभजे धट्टा पकर उठ जाग। चेत सम्भार श्री परहंस मेरे गुरू की कृपा अपार।
इस मंत्र को 21 बार उच्चारण करना चाहिए। फिर अपने शरीर को रक्षा मंत्रों द्वारा सुरक्षित कर लेना चाहिए।
सुरक्षा मंत्र 1 – उत्तर बांधों, दक्षिण बांधों, बांधों मरी मसानी,
नजर-गुजर देह बांधों रामदुहाई फेरों शब्द शाचा,
पिंड काचा फुरो मंत्र ईश्वरों बाचा।
इस मंत्र को सात बार पढ़कर हथेली में फूक मारकर सारे शरीर में फिरा लें ऐसा करने से साधक का शरीर बंध जाता है और साधक सुरक्षित हो जाता है।
शरीर रक्षा मंत्र 2 – नमों आदि आदेश गुरू के जय हनुमान वीर महान करथों तोला प्रनाम,
भूत-प्रेत मरी-मशान भाग जाय तोर सुन के नाम,
मोर शरीर के रक्षा करिबे नही तो सिता भैया के सैया पर पग ला धरबे,
मोर फूके मोर गुरू के फुके गुरू कौन गौर महादेव के फूके जा रे शरीर बँधा जा।
विधि – मंत्र को ग्यारह बार पढ़कर अपने चारों ओर एक घेरा बना ले इससे साधना में सभी विघ्नों से साधक की रक्षा होती है। इसके बाद किसी भी साधना का प्रयोग करने के लिए तैयार हो जाता है। फिर जो भी साधना या प्रयोग कर सकता है।
3…दर्शन हेतु श्री काली मन्त्र
“डण्ड भुज-डण्ड, प्रचण्ड नो खण्ड। प्रगट देवि, तुहि झुण्डन के झुण्ड। खगर दिखा खप्पर लियां, खड़ी कालका। तागड़दे मस्तङ्ग, तिलक मागरदे मस्तङ्ग। चोला जरी का, फागड़ दीफू, गले फुल-माल, जय जय जयन्त। जय आदि-शक्ति। जय कालका खपर-धनी। जय मचकुट छन्दनी देव। जय-जय महिरा, जय मरदिनी। जय-जय चुण्ड-मुण्ड भण्डासुर-खण्डनी, जय रक्त-बीज बिडाल-बिहण्डनी। जय निशुम्भ को दलनी, जय शिव राजेश्वरी। अमृत-यज्ञ धागी-धृट, दृवड़ दृवड़नी। बड़ रवि डर-डरनी ॐ ॐ ॐ।।”
विधि- नवरात्रों में प्रतिपदा से नवमी तक घृत का दीपक प्रज्वलित रखते हुए अगर-बत्ती जलाकर प्रातः-सायं उक्त मन्त्र का ४०-४० जप करे। कम या ज्यादा न करे। जगदम्बा के दर्शन होते हैं।
4….अक्षय-धन-प्राप्ति मन्त्र
प्रार्थना
हे मां लक्ष्मी, शरण हम तुम्हारी।
पूरण करो अब माता कामना हमारी।।
धन की अधिष्ठात्री, जीवन-सुख-दात्री।
सुनो-सुनो अम्बे सत्-गुरु की पुकार।
शम्भु की पुकार, मां कामाक्षा की पुकार।।
तुम्हें विष्णु की आन, अब मत करो मान।
आशा लगाकर अम देते हैं दीप-दान।।
मन्त्र- “ॐ नमः विष्णु-प्रियायै, ॐ नमः कामाक्षायै। ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्रीं क्रीं क्रीं श्रीं श्रीं श्रीं फट् स्वाहा।”
विधि- ‘दीपावली’ की सन्ध्या को पाँच मिट्टी के दीपकों में गाय का घी डालकर रुई की बत्ती जलाए। ‘लक्ष्मी जी’ को दीप-दान करें और ‘मां कामाक्षा’ का ध्यान कर उक्त प्रार्थना करे। मन्त्र का १०८ बार जप करे। ‘दीपक’ सारी रात जलाए रखे और स्वयं भी जागता रहे। नींद आने लगे, तो मन्त्र का जप करे। प्रातःकाल दीपों के बुझ जाने के बाद उन्हें नए वस्त्र में बाँधकर ‘तिजोरी’ या ‘बक्से’ में रखे। इससे श्रीलक्ष्मीजी का उसमें वास हो जाएगा और धन-प्राप्ति होगी। प्रतिदिन सन्ध्या समय दीप जलाए और पाँच बार उक्त मन्त्र का जप करे।
5…… लक्ष्मी-पूजन मन्त्र
“आवो लक्ष्मी बैठो आँगन, रोरी तिलक चढ़ाऊँ। गले में हार पहनाऊँ।। बचनों की बाँधी, आवो हमारे पास। पहला वचन श्रीराम का, दूजा वचन ब्रह्मा का, तीजा वचन महादेव का। वचन चूके, तो नर्क पड़े। सकल पञ्च में पाठ करुँ। वरदान नहीं देवे, तो महादेव शक्ति की आन।।”
विधिः- दीपावली की रात्रि को सर्व-प्रथम षोडशोपचार से लक्ष्मी जी का पूजन करें। स्वयं न कर सके, तो किसी कर्म-काण्डी ब्राह्मण से करवा लें। इसके बाद रात्रि में ही उक्त मन्त्र की ५ माला जप करें। इससे वर्ष-समाप्ति तक धन की कमी नहीं होगी और सारा वर्ष सुख तथा उल्लास में बीतेगा।
6…..श्री भैरव मन्त्र
“ॐ गुरुजी काला भैरुँ कपिला केश, काना मदरा, भगवाँ भेस। मार-मार काली-पुत्र। बारह कोस की मार, भूताँ हात कलेजी खूँहा गेडिया। जहाँ जाऊँ भैरुँ साथ। बारह कोस की रिद्धि ल्यावो। चौबीस कोस की सिद्धि ल्यावो। सूती होय, तो जगाय ल्यावो। बैठा होय, तो उठाय ल्यावो। अनन्त केसर की भारी ल्यावो। गौरा-पार्वती की विछिया ल्यावो। गेल्याँ की रस्तान मोह, कुवे की पणिहारी मोह, बैठा बाणिया मोह, घर बैठी बणियानी मोह, राजा की रजवाड़ मोह, महिला बैठी रानी मोह। डाकिनी को, शाकिनी को, भूतनी को, पलीतनी को, ओपरी को, पराई को, लाग कूँ, लपट कूँ, धूम कूँ, धक्का कूँ, पलीया कूँ, चौड़ कूँ, चौगट कूँ, काचा कूँ, कलवा कूँ, भूत कूँ, पलीत कूँ, जिन कूँ, राक्षस कूँ, बरियों से बरी कर दे। नजराँ जड़ दे ताला, इत्ता भैरव नहीं करे, तो पिता महादेव की जटा तोड़ तागड़ी करे, माता पार्वती का चीर फाड़ लँगोट करे। चल डाकिनी, शाकिनी, चौडूँ मैला बाकरा, देस्यूँ मद की धार, भरी सभा में द्यूँ आने में कहाँ लगाई बार ? खप्पर में खाय, मसान में लौटे, ऐसे काला भैरुँ की कूण पूजा मेटे। राजा मेटे राज से जाय, प्रजा मेटे दूध-पूत से जाय, जोगी मेटे ध्यान से जाय। शब्द साँचा, ब्रह्म वाचा, चलो मन्त्र ईश्वरो वाचा।”
विधिः- उक्त मन्त्र का अनुष्ठान रविवार से प्रारम्भ करें। एक पत्थर का तीन कोनेवाला टुकड़ा लिकर उसे अपने सामने स्थापित करें। उसके ऊपर तेल और सिन्दूर का लेप करें। पान और नारियल भेंट में चढावें। वहाँ नित्य सरसों के तेल का दीपक जलावें। अच्छा होगा कि दीपक अखण्ड हो। मन्त्र को नित्य २१ बार ४१ दिन तक जपें। जप के बाद नित्य छार, छरीला, कपूर, केशर और लौंग की आहुति दें। भोग में बाकला, बाटी बाकला रखें (विकल्प में उड़द के पकोड़े, बेसन के लड्डू और गुड़-मिले दूध की बलि दें। मन्त्र में वर्णित सब कार्यों में यह मन्त्र काम करता है।
7…महा-लक्ष्मी मन्त्र
“राम-राम रटा करे, चीनी मेरा नाम। सर्व-नगरी बस में करुँ, मोहूँ सारा गाँव।
राजा की बकरी करुँ, नगरी करुँ बिलाई। नीचा में ऊँचा करुँ, सिद्ध गोरखनाथ की दुहाई।।”
विधिः- जिस दिन गुरु-पुष्य योग हो, उस दिन से प्रतिदिन एकान्त में बैठ कर कमल-गट्टे की माला से उक्त मन्त्र को १०८ बार जपें। ४० दिनों में यह मन्त्र सिद्ध हो जाता है, फिर नित्य ११ बार जप करते रहें।
8…दुर्गा शाबर मन्त्र
“ॐ ह्रीं श्रीं चामुण्डा सिंह वाहिनीं बीस हस्ती भगवती, रत्न मण्डित सोनन की माल। उत्तर पथ में आन बैठी, हाथ सिद्ध वाचा ऋद्धि-सिद्धि। धन-धान्य देहि देहि, कुरू कुरू स्वाहा।”
उक्त मन्त्र का सवा लाख जप कर सिद्ध कर लें। फिर आवश्यकतानुसार श्रद्धा से एक माला जप करने से सभी कार्य सिद्ध होते हैं। लक्ष्मी प्राप्त होती है। नौकरी में उन्नति और व्यवसाय में वृद्धि होती है।
9…देपालसर (चूरु) गणेशजी
“ॐ नमो सिद्ध-विनायकाय सर्व-कार्य-कर्त्रे सर्व-विघ्न-प्रशमनाय सर्व-राज्य-वश्य-करणाय सर्व-जन-सर्व-स्त्री-पुरुष-आकर्षणाय श्रीं ॐ स्वाहा।”
विधि- नित्य-कर्म से निवृत्त होकर उक्त मन्त्र का निश्चित संख्या में नित्य १ से १० माला ‘जप’ करे। बाद में जब घर से निकले, तब अपने अभीष्ट कार्य का चिन्तन करे। इससे अभीष्ट कार्व सुगमता से पूरे हो जाते हैं।
10…आकर्षण हेतु हनुमद्-मन्त्र-तन्त्र
“ॐ अमुक-नाम्ना ॐ नमो वायु-सूनवे झटिति आकर्षय-आकर्षय स्वाहा।”
विधि- केसर, कस्तुरी, गोरोचन, रक्त-चन्दन, श्वेत-चन्दन, अम्बर, कर्पूर और तुलसी की जड़ को घिस या पीसकर स्याही बनाए। उससे द्वादश-दल-कलम जैसा ‘यन्त्र’ लिखकर उसके मध्य में, जहाँ पराग रहता है, उक्त मन्त्र को लिखे। ‘अमुक’ के स्थान पर ‘साध्य’ का नाम लिखे। बारह दलों में क्रमशः निम्न मन्त्र लिखे- १॰ हनुमते नमः, २॰ अञ्जनी-सूनवे नमः, ३॰ वायु-पुत्राय नमः, ४॰ महा-बलाय नमः, ५॰ श्रीरामेष्टाय नमः, ६॰ फाल्गुन-सखाय नमः, ७॰ पिङ्गाक्षाय नमः, ८॰ अमित-विक्रमाय नमः, ९॰ उदधि-क्रमणाय नमः, १०॰ सीता-शोक-विनाशकाय नमः, ११॰ लक्ष्मण-प्राण-दाय नमः और १२॰ दश-मुख-दर्प-हराय नमः।
यन्त्र की प्राण-प्रतिष्ठा करके षोडशोपचार पूजन करते हुए उक्त मन्त्र का ११००० जप करें। ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए लाल चन्दन या तुलसी की माला से जप करें। आकर्षण हेतु अति प्रभावकारी है।
11….“काली काली महा-काली, इन्द्र की बेटी, ब्रह्मा की साली। पीती भर भर रक्त प्याली, उड़ बैठी पीपल की डाली। दोनों हाथ बजाए ताली। जहाँ जाए वज्र की ताली, वहाँ ना आए दुश्मन हाली। दुहाई कामरो कामाख्या नैना योगिनी की, ईश्वर महादेव गोरा पार्वती की, दुहाई वीर मसान की।।”
विधिः- प्रतिदिन १०८ बार ४० दिन तक जप कर सिद्ध करे। प्रयोग के समय पढ़कर तीन बार जोर से ताली बजाए। जहाँ तक ताली की आवाज जायेगी, दुश्मन का कोई वार या भूत, प्रेत असर नहीं करेगा।
12…कार्य-सिद्धि हेतु गणेश शाबर मन्त्र
“ॐ गनपत वीर, भूखे मसान, जो फल माँगूँ, सो फल आन। गनपत देखे, गनपत के छत्र से बादशाह डरे। राजा के मुख से प्रजा डरे, हाथा चढ़े सिन्दूर। औलिया गौरी का पूत गनेश, गुग्गुल की धरुँ ढेरी, रिद्धि-सिद्धि गनपत धनेरी। जय गिरनार-पति। ॐ नमो स्वाहा।”
विधि-
सामग्रीः- धूप या गुग्गुल, दीपक, घी, सिन्दूर, बेसन का लड्डू। दिनः- बुधवार, गुरुवार या शनिवार। निर्दिष्ट वारों में यदि ग्रहण, पर्व, पुष्य नक्षत्र, सर्वार्थ-सिद्धि योग हो तो उत्तम। समयः- रात्रि १० बजे। जप संख्या-१२५। अवधिः- ४० दिन।
किसी एकान्त स्थान में या देवालय में, जहाँ लोगों का आवागमन कम हो, भगवान् गणेश की षोडशोपचार से पूजा करे। घी का दीपक जलाकर, अपने सामने, एक फुट की ऊँचाई पर रखे। सिन्दूर और लड्डू के प्रसाद का भोग लगाए और प्रतिदिन १२५ बार उक्त मन्त्र का जप करें। प्रतिदिन के प्रसाद को बच्चों में बाँट दे। चालीसवें दिन सवा सेर लड्डू के प्रसाद का भोग लगाए और मन्त्र का जप समाप्त होने पर तीन बालकों को भोजन कराकर उन्हें कुछ द्रव्य-दक्षिणा में दे। सिन्दूर को एक डिब्बी में सुरक्षित रखे। एक सप्ताह तक इस सिन्दूर को न छूए। उसके बाद जब कभी कोई कार्य या समस्या आ पड़े, तो सिन्दूर को सात बार उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित कर अपने माथे पर टीका लगाए। कार्य सफल होगा।
13….भ॰ गहिनीनाथ परम्परा के शाबर मन्त्र
१॰ “ॐ निरञ्जन जट-स्वाही तरङ्ग ह्राम् ह्रीम् स्वाहा”
२॰ “ॐ रा रा ऋतं रौभ्यं स्तौभ्यं रिष्टं तथा भगम्।
धियं च वर्धमानाय सूविर्याय नमो नमः।।”
विधि- नित्य प्रातःकाल स्नान के बाद उक्त मन्त्र का १०८ बार जप करें। ऐसा ८ दिन करने से मन्त्र सिद्ध होते हैं। बाद में नित्य २७ बार जप करें। इससे सभी संकट, क्लेश दूर होते हैं।
14….विरह-ज्वर-विनाशकं ब्रह्म-शक्ति स्तोत्रम्
।।श्रीशिवोवाच।।
ब्राह्मि ब्रह्म-स्वरूपे त्वं, मां प्रसीद सनातनि ! परमात्म-स्वरूपे च, परमानन्द-रूपिणि !।।
ॐ प्रकृत्यै नमो भद्रे, मां प्रसीद भवार्णवे। सर्व-मंगल-रूपे च, प्रसीद सर्व-मंगले !।।
विजये शिवदे देवि ! मां प्रसीद जय-प्रदे। वेद-वेदांग-रूपे च, वेद-मातः ! प्रसीद मे।।
शोकघ्ने ज्ञान-रूपे च, प्रसीद भक्त वत्सले। सर्व-सम्पत्-प्रदे माये, प्रसीद जगदम्बिके!।।
लक्ष्मीर्नारायण-क्रोडे, स्त्रष्टुर्वक्षसि भारती। मम क्रोडे महा-माया, विष्णु-माये प्रसीद मे।।
काल-रूपे कार्य-रूपे, प्रसीद दीन-वत्सले। कृष्णस्य राधिके भदे्र, प्रसीद कृष्ण पूजिते!।।
समस्त-कामिनीरूपे, कलांशेन प्रसीद मे। सर्व-सम्पत्-स्वरूपे त्वं, प्रसीद सम्पदां प्रदे!।।
यशस्विभिः पूजिते त्वं, प्रसीद यशसां निधेः। चराचर-स्वरूपे च, प्रसीद मम मा चिरम्।।
मम योग-प्रदे देवि ! प्रसीद सिद्ध-योगिनि। सर्वसिद्धिस्वरूपे च, प्रसीद सिद्धिदायिनि।।
अधुना रक्ष मामीशे, प्रदग्धं विरहाग्निना। स्वात्म-दर्शन-पुण्येन, क्रीणीहि परमेश्वरि !।।
।।फल-श्रुति।।
एतत् पठेच्छृणुयाच्चन, वियोग-ज्वरो भवेत्। न भवेत् कामिनीभेदस्तस्य जन्मनि जन्मनि।।
इस स्तोत्र का पाठ करने अथवा सुनने वाले को वियोग-पीड़ा नहीं होती और जन्म-जन्मान्तर तक कामिनी-भेद नहीं होता।
विधि – पारिवारिक कलह, रोग या अकाल-मृत्यु आदि की सम्भावना होने पर इसका पाठ करना चाहिये। प्रणय सम्बन्धों में बाधाएँ आने पर भी इसका पाठ अभीष्ट फलदायक होगा।
अपनी इष्ट-देवता या भगवती गौरी का विविध उपचारों से पूजन करके उक्त स्तोत्र का पाठ करें। अभीष्ट-प्राप्ति के लिये कातरता, समर्पण आवश्यक है.
15…गोरख शाबर गायत्री मन्त्र
“ॐ गुरुजी, सत नमः आदेश। सत गुरुजी को आदेश। ॐकारे शिव-रुपी, मध्याह्ने हंस-रुपी, सन्ध्यायां साधु-रुपी। हंस, परमहंस दो अक्षर। गुरु तो गोरक्ष, काया तो गायत्री। ॐ ब्रह्म, सोऽहं शक्ति, शून्य माता, अवगत पिता, विहंगम जात, अभय पन्थ, सूक्ष्म-वेद, असंख्य शाखा, अनन्त प्रवर, निरञ्जन गोत्र, त्रिकुटी क्षेत्र, जुगति जोग, जल-स्वरुप रुद्र-वर्ण। सर्व-देव ध्यायते। आए श्री शम्भु-जति गुरु गोरखनाथ। ॐ सोऽहं तत्पुरुषाय विद्महे शिव गोरक्षाय धीमहि तन्नो गोरक्षः प्रचोदयात्। ॐ इतना गोरख-गायत्री-जाप सम्पूर्ण भया। गंगा गोदावरी त्र्यम्बक-क्षेत्र कोलाञ्चल अनुपान शिला पर सिद्धासन बैठ। नव-नाथ, चौरासी सिद्ध, अनन्त-कोटि-सिद्ध-मध्ये श्री शम्भु-जति गुरु गोरखनाथजी कथ पढ़, जप के सुनाया। सिद्धो गुरुवरो, आदेश-आदेश।।”
साधन-विधि एवं प्रयोगः-
प्रतिदिन गोरखनाथ जी की प्रतिमा का पंचोपचार से पूजनकर २१, २७, ५१ या १०८ जप करें। नित्य जप से भगवान् गोरखनाथ की कृपा मिलती है, जिससे साधक और उसका परिवार सदा सुखी रहता है। बाधाएँ स्वतः दूर हो जाती है। सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है और अन्त में परम पद प्राप्त होता है।
16…गोरख शाबर गायत्री मन्त्र
“ॐ गुरुजी, सत नमः आदेश। सत गुरुजी को आदेश। ॐकारे शिव-रुपी, मध्याह्ने हंस-रुपी, सन्ध्यायां साधु-रुपी। हंस, परमहंस दो अक्षर। गुरु तो गोरक्ष, काया तो गायत्री। ॐ ब्रह्म, सोऽहं शक्ति, शून्य माता, अवगत पिता, विहंगम जात, अभय पन्थ, सूक्ष्म-वेद, असंख्य शाखा, अनन्त प्रवर, निरञ्जन गोत्र, त्रिकुटी क्षेत्र, जुगति जोग, जल-स्वरुप रुद्र-वर्ण। सर्व-देव ध्यायते। आए श्री शम्भु-जति गुरु गोरखनाथ। ॐ सोऽहं तत्पुरुषाय विद्महे शिव गोरक्षाय धीमहि तन्नो गोरक्षः प्रचोदयात्। ॐ इतना गोरख-गायत्री-जाप सम्पूर्ण भया। गंगा गोदावरी त्र्यम्बक-क्षेत्र कोलाञ्चल अनुपान शिला पर सिद्धासन बैठ। नव-नाथ, चौरासी सिद्ध, अनन्त-कोटि-सिद्ध-मध्ये श्री शम्भु-जति गुरु गोरखनाथजी कथ पढ़, जप के सुनाया। सिद्धो गुरुवरो, आदेश-आदेश।।”
साधन-विधि एवं प्रयोगः-
प्रतिदिन गोरखनाथ जी की प्रतिमा का पंचोपचार से पूजनकर २१, २७, ५१ या १०८ जप करें। नित्य जप से भगवान् गोरखनाथ की कृपा मिलती है, जिससे साधक और उसका परिवार सदा सुखी रहता है। बाधाएँ स्वतः दूर हो जाती है। सुख-सम्पत्ति में वृद्धि होती है और अन्त में परम पद प्राप्त होता है।
17….हनुमान रक्षा-शाबर मन्त्र“ॐ गर्जन्तां घोरन्तां, इतनी छिन कहाँ लगाई ? साँझ क वेला, लौंग-सुपारी-पान-फूल-इलायची-धूप-दीप-रोट॒लँगोट-फल-फलाहार मो पै माँगै। अञ्जनी-पुत्र प्रताप-रक्षा-कारण वेगि चलो। लोहे की गदा कील, चं चं गटका चक कील, बावन भैरो कील, मरी कील, मसान कील, प्रेत-ब्रह्म-राक्षस कील, दानव कील, नाग कील, साढ़ बारह ताप कील, तिजारी कील, छल कील, छिद कील, डाकनी कील, साकनी कील, दुष्ट कील, मुष्ट कील, तन कील, काल-भैरो कील, मन्त्र कील, कामरु देश के दोनों दरवाजा कील, बावन वीर कील, चौंसठ जोगिनी कील, मारते क हाथ कील, देखते क नयन कील, बोलते क जिह्वा कील, स्वर्ग कील, पाताल कील, पृथ्वी कील, तारा कील, कील बे कील, नहीं तो अञ्जनी माई की दोहाई फिरती रहे। जो करै वज्र की घात, उलटे वज्र उसी पै परै। छात फार के मरै। ॐ खं-खं-खं जं-जं-जं वं-वं-वं रं-रं-रं लं-लं-लं टं-टं-टं मं-मं-मं। महा रुद्राय नमः। अञ्जनी-पुत्राय नमः। हनुमताय नमः। वायु-पुत्राय नमः। राम-दूताय नमः।”
विधिः- अत्यन्त लाभ-दायक अनुभूत मन्त्र है। १००० पाठ करने से सिद्ध होता है। अधिक कष्ट हो, तो हनुमानजी का फोटो टाँगकर, ध्यान लगाकर लाल फूल और गुग्गूल की आहुति दें। लाल लँगोट, फल, मिठाई, ५ लौंग, ५ इलायची, १ सुपारी चढ़ा कर पाठ करें।.
18….दुर्गा शाबर मन्त्र“ॐ ह्रीं श्रीं चामुण्डा सिंह-वाहिनी। बीस-हस्ती भगवती, रत्न-मण्डित सोनन की माल। उत्तर-पथ में आप बैठी, हाथ सिद्ध वाचा ऋद्धि-सिद्धि। धन-धान्य देहि देहि, कुरु कुरु स्वाहा।”
विधिः- उक्त मन्त्र का सवा लाख जप कर सिद्ध कर लें। फिर आवश्यकतानुसार श्रद्धा से एक माला जप करने से सभी कार्य सिद्ध होते हैं। लक्ष्मी प्राप्त होती है, नौकरी में उन्नति और व्यवसाय में वृद्धि होती है।
19….लक्ष्मी शाबर मन्त्र“विष्णु-प्रिया लक्ष्मी, शिव-प्रिया सती से प्रकट हुई। कामाक्षा भगवती आदि-शक्ति, युगल मूर्ति अपार, दोनों की प्रीति अमर, जाने संसार। दुहाई कामाक्षा की। आय बढ़ा व्यय घटा। दया कर माई। ॐ नमः विष्णु-प्रियाय। ॐ नमः शिव-प्रियाय। ॐ नमः कामाक्षाय। ह्रीं ह्रीं श्रीं श्रीं फट् स्वाहा।”
विधिः- धूप-दीप-नैवेद्य से पूजा कर सवा लक्ष जप करें। लक्ष्मी आगमन एवं चमत्कार प्रत्यक्ष दिखाई देगा। रुके कार्य होंगे। लक्ष्मी की कृपा बनी रहेगी।
4…कामकला त्रिलोक्यमोहनकवचः
अस्य श्री त्रैलोकयमोहन रहस्य कवचस्य ।
त्रिपुरारि ऋषिः – विराट् छन्दः – भगवति कामकलाकाली देवता ।
फ्रें बीजं – योगिनी शक्तिः- क्लीं कीलकं – डाकिनि तत्त्वं
भ्गावती श्री कामकलाकाली अनुग्रह प्रसाद सिध्यर्ते जपे विनियोगः॥
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ॐ ऐं श्रीं क्लीं शिरः पातु फ्रें ह्रीं छ्रीं मदनातुरा।
स्त्रीं ह्रूं क्षौं ह्रीं लं ललाटं पातु ख्फ्रें क्रौं करालिनी॥ १
आं हौं फ्रों क्षूँ मुखं पातु क्लूं ड्रं थ्रौं चन्ण्डनायिका।
हूं त्रैं च्लूं मौः पातु दृशौ प्रीं ध्रीं क्ष्रीं जगदाम्बिका॥ २
क्रूं ख्रूं घ्रीं च्लीं पातु कर्णौ ज्रं प्लैं रुः सौं सुरेश्वरी।
गं प्रां ध्रीं थ्रीं हनू पातु अं आं इं ईं श्मशानिनी॥ ३
जूं डुं ऐं औं भ्रुवौ पातु कं खं गं घं प्रमाथिनी।
चं छं जं झं पातु नासां टं ठं डं ढं भगाकुला॥ ४
तं थं दं धं पात्वधरमोष्ठं पं फं रतिप्रिया।
बं भं यं रं पातु दन्तान् लं वं शं सं चं कालिका॥ ५
हं क्षं क्षं हं पातु जिह्वां सं शं वं लं रताकुला।
वं यं भं वं चं चिबुकं पातु फं पं महेश्वरी॥ ६
धं दं थं तं पातु कण्ठं ढं डं ठं टं भगप्रिया।
झं जं छं चं पातु कुक्षौ घं गं खं कं महाजटा॥ ७
ह्सौः ह्स्ख्फ्रैं पातु भुजौ क्ष्मूं म्रैं मदनमालिनी।
ङां ञीं णूं रक्षताज्जत्रू नैं मौं रक्तासवोन्मदा ॥ ८
ह्रां ह्रीं ह्रूं पातु कक्षौ में ह्रैं ह्रौं निधुवनप्रिया।
क्लां क्लीं क्लूं पातु हृदयं क्लैं क्लौं मुण्डावतंसिका॥ ९
श्रां श्रीं श्रूं रक्षतु करौ श्रैं श्रौं फेत्कारराविणी।
क्लां क्लीं क्लूं अङ्गुलीः पातु क्लैं क्लौं च नारवाहिनी॥ १०
च्रां च्रीं च्रूं पातु जठरं च्रैं च्रौं संहाररूपिणी।
छ्रां छ्रीं छ्रूं रक्षतान्नाभिं छ्रैं छ्रौं सिद्धकरालिनी॥ ११
स्त्रां स्त्रीं स्त्रूं रक्षतात् पार्श्वौ स्त्रैं स्त्रौं निर्वाणदायिनी।
फ्रां फ्रीं फ्रूं रक्षतात् पृष्ठं फ्रैं फ्रौं ज्ञानप्रकाशिनी॥ १२
क्षां क्षीं क्षूं रक्षतु कटिं क्षैं क्षौं नृमुण्डमालिनी।
ग्लां ग्लीं ग्लूं रक्षतादूरू ग्लैं ग्लौं विजयदायिनी॥ १३
ब्लां ब्लीं ब्लूं जानुनी पातु ब्लैं ब्लौं महिषमर्दिनी।
प्रां प्रीं प्रूं रक्षताज्जङ्घे प्रैं प्रौं मृत्युविनाशिनी॥ १४
थ्रां थ्रीं थ्रूं चरणौ पातु थ्रैं थ्रौं संसारतारिणी।
ॐ फ्रें सिद्ध्विकरालि ह्रीं छ्रीं ह्रं स्त्रीं फ्रें नमः॥ १५
सर्वसन्धिषु सर्वाङ्गं गुह्यकाली सदावतु।
ॐ फ्रें सिद्ध्विं हस्खफ्रें ह्सफ्रें ख्फ्रें करालि ख्फ्रें हस्खफ्रें ह्स्फ्रें फ्रें ॐ स्वाहा॥ १६
रक्षताद् घोरचामुण्डा तु कलेवरं वहक्षमलवरयूं।
अव्यात् सदा भद्रकाली प्राणानेकादशेन्द्रियान् ॥ १७
ह्रीं श्रीं ॐ ख्फ्रें ह्स्ख्फ्रें हक्षम्लब्रयूं
न्क्ष्रीं नज्च्रीं स्त्रीं छ्रीं ख्फ्रें ठ्रीं ध्रीं नमः।
यत्रानुक्त्तस्थलं देहे यावत्तत्र च तिष्ठति॥ १८
उक्तं वाऽप्यथवानुक्तं करालदशनावतु
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं हूं स्त्रीं ध्रीं फ्रें क्षूं क्शौं
क्रौं ग्लूं ख्फ्रें प्रीं ठ्रीं थ्रीं ट्रैं ब्लौं फट् नमः स्वाहा॥ १९
सर्वमापादकेशाग्रं काली कामकलावतु॥ २०
5…..श्रीचक्रराजस्तोत्रम् ॥
प्रोक्ता पञ्चदशी विद्या महात्रिपुरसुन्दरी ।
श्रीमहाषोडशी प्रोक्ता महामाहेश्वरी सदा ॥ १ ॥
प्रोक्ता श्रीदक्षिणा काली महाराज्ञीति संज्ञया ।
लोके ख्याता महाराज्ञी नाम्ना दक्षिणकालिका ।
आगमेषु महाशक्तिः ख्याता श्रीभुवनेश्वरी ॥ २ ॥
महागुप्ता गुह्यकाली नाम्ना शास्त्रेषु कीर्तिता ।
महोग्रतारा निर्दिष्टा महाज्ञप्तेति भूतले ॥ ३ ॥
महानन्दा कुब्जिका स्यात् लोकेऽत्र जगदम्बिका ।
त्रिशक्त्याद्याऽत्र चामुण्डा महास्पन्दा प्रकीर्तिता ॥ ४ ॥
महामहाशया प्रोक्ता बाला त्रिपुरसुन्दरी ।
श्रीचक्रराजः सम्प्रोक्तस्त्रिभागेन महेश्वरि ॥ ५ ॥
ब्रह्मीभूत पूज्य श्रीस्वामी विद्यारण्य की कृपा से प्राप्त
हिन्दी अनुवाद
पञ्चदशी विद्या महात्रिपुरसुन्दरी और श्रीमहाषोडशी विद्या
सदैव महामाहेश्वरी कही गई हैं । श्रीदक्षिणा काली को
महाराज्ञी नाम से कहा गया है और श्री भुवनेश्वरी आगमों में
महाशक्ति नाम से प्रसिद्ध हैं । शास्त्रों में गुह्यकाली नाम से
महागुप्ता का वर्णन है और पृथ्वी पर महोग्रतारा महाज्ञप्ता
बताई गई हैं । जगदम्बा कुब्जिका इस लोक में महानन्दा हैं और
त्रिशक्त्यात्मिका आद्या चामुण्डा महास्पन्दा कही गई हैं ।
बाला त्रिपुरसुन्दरी महामहाशया कही गई हैं । हे महेश्वर!
इस प्रकार तीन भागों में श्रीचक्रराज का वर्णन है ।
3…॥ देवी खड्गमाला स्तोत्ररत्नम् ॥
प्रार्थना
ह्रीङ्काराननगर्भितानलशिखां सौः क्लीङ्कलाम् बिभ्रतीं
सौवर्णाम्बरधारिणीं वरसुधाधौतां त्रिनेत्रोज्ज्वलाम् ।
वन्दे पुस्तकपाशमङ्कुशधरां स्रग्भूषितामुज्ज्वलां
त्वां गौरीं त्रिपुरां परात्परकलां श्रीचक्रसञ्चारिणीम् ॥
अस्य श्री शुद्धशक्तिमालामहामन्त्रस्य, उपस्थेन्द्रियाधिष्ठायी
वरुणादित्य ऋषयः देवी गायत्री छन्दः सात्विक
ककारभट्टारकपीठस्थित कामेश्वराङ्कनिलया महाकामेश्वरी श्री
ललिता भट्टारिका देवता, ऐं बीजं क्लीं शक्तिः, सौः कीलकं मम
खड्गसिद्ध्यर्थे सर्वाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः, मूलमन्त्रेण
षडङ्गन्यासं कुर्यात् ।
ध्यानम्
तादृशं खड्गमाप्नोति येव हस्तस्थितेनवै
अष्टादशमहाद्वीपसम्राड्भोक्ताभविष्यति
आरक्ताभान्त्रिनेत्रामरुणिमवसनाम् रत्नताटङ्करम्यां
हस्ताम्भोजैस्सपाशाङ्कुशमदनधनुस्सायकैर्विस्फुरन्तीम् ।
आपीनोत्तुङ्गु वक्षोरुहकलशलुठत्तारहारोज्ज्वलाङ्गीं
ध्यायेदम्भोरुहस्थामरुणिमवसनामीश्वरीमीश्वराणाम् ॥
लमित्यादिपञ्च पूजाम् कुर्यात्, यथाशक्ति मूलमन्त्रम् जपेत् ।
लं -पृथिवीतत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै
गन्धं परिकल्पयामि -नमः
हं -आकाशतत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै पुष्पं
परिकल्पयामि -नमः
यं -वायुतत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै धूपं
परिकल्पयामि -नमः
रं -तेजस्तत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै दीपं
परिकल्पयामि -नमः
वं -अमृततत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै
अमृतनैवेद्यं परिकल्पयामि -नमः
सं -सर्वतत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै
ताम्बूलादिसर्वोपचारान् परिकल्पयामि -नमः
श्री देवी सम्बोधनं -१
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः ॐ नमस्त्रिपुरसुन्दरि,
न्यासाङ्गदेवताः -६
हृदयदेवि, शिरोदेवि, शिखादेवि, कवचदेवि, नेत्रदेवि,
अस्त्रदेवि,
तिथिनित्यादेवताः -१६
कामेश्वरि, भगमालिनि, नित्यक्लिन्ने, भेरुण्डे, वह्निवासिनि,
महावज्रेश्वरि, शिवदूति, त्वरिते, कुलसुन्दरि, नित्ये,
नीलपताके, विजये, सर्वमङ्गले, ज्वालामालिनि, चित्रे,
महानित्ये,
दिव्यौघगुरवः -७
परमेश्वर, परमेश्वरि, मित्रेशमयि, उड्डीशमयि,
चर्यानाथमयि, लोपामुद्रमयि, अगस्त्यमयि,
सिद्धौघगुरवः -४
कालतापशमयि, धर्माचार्यमयि, मुक्तकेशीश्वरमयि, दीपकलानाथमयि,
मानवौघगुरवः -८
विष्णुदेवमयि, प्रभाकरदेवमयि, तेजोदेवमयि, मनोजदेवमयि,
कल्याणदेवमयि, वासुदेवमयि, रत्नदेवमयि, श्रीरामानन्दमयि,
श्रीचक्र प्रथमावरणदेवताः -३२
अणिमासिद्धे, लघिमासिद्धे, गरिमासिद्धे, महिमासिद्धे,
ईशित्वसिद्धे, वशित्वसिद्धे, प्राकाम्यसिद्धे, भुक्तिसिद्धे,
इच्छासिद्धे, प्राप्तिसिद्धे, सर्वकामसिद्धे, ब्राह्मि,
माहेश्वरि, कौमारि, वैष्णवि, वाराहि, माहेन्द्रि, चामुण्डे,
महालक्ष्मि, सर्वसङ्क्षोभिणि, सर्वविद्राविणि, सर्वाकर्षिणि,
सर्ववशङ्करि, सर्वोन्मादिनि, सर्वमहाङ्कुशे, सर्वखेचरि,
सर्वबीजे, सर्वयोने, सर्वत्रिखण्डे, त्रैलोक्यमोहन
चक्रस्वामिनि, प्रकटयोगिनि,
श्रीचक्र द्वितीयावरणदेवताः -१८
कामाकर्षिणि, बुद्ध्याकर्षिणि, अहंकाराकर्षिणि, शब्दाकर्षिणि,
स्पर्शाकर्षिणि, रूपाकर्षिणि, रसाकर्षिणि, गन्धाकर्षिणि,
चित्ताकर्षिणि, धैर्याकर्षिणि, स्मृत्याकर्षिणि, नामाकर्षिणि,
बीजाकर्षिणि, आत्माकर्षिणि, अमृताकर्षिणि, शरीराकर्षिणि,
सर्वाशापरिपूरकचक्रस्वामिनि, गुप्तयोगिनि,
श्रीचक्र तृतीयावरणदेवताः -१०
अनङ्गकुसुमे, अनङ्गमेखले, अनङ्गमदने, अनङ्गमदनातुरे,
अनङ्गरेखे, अनङ्गवेगिनि, अनङ्गाङ्कुशे, अनङ्गमालिनि,
सर्वसङ्क्षोभणचक्रस्वामिनि, गुप्ततरयोगिनि,
श्रीचक्र चतुर्थावरणदेवताः -१६
सर्वसङ्क्षोभिणि, सर्वविद्राविनि, सर्वाकर्षिणि,
सर्वह्लादिनि, सर्वसम्मोहिनि, सर्वस्तम्भिनि, सर्वजृम्भिणि,
सर्ववशङ्करि, सर्वरञ्जनि, सर्वोन्मादिनि, सर्वार्थसाधिके,
सर्वसम्पत्तिपूरिणि, सर्वमन्त्रमयि, सर्वद्वन्द्वक्षयङ्करि,
सर्वसौभाग्यदायकचक्रस्वामिनि, सम्प्रदाययोगिनि,
श्रीचक्र पञ्चमावरणदेवताः -१२
सर्वसिद्धिप्रदे, सर्वसम्पत्प्रदे, सर्वप्रियङ्करि,
सर्वमङ्गलकारिणि, सर्वकामप्रदे, सर्वदुःखविमोचनि,
सर्वमृत्युप्रशमनि, सर्वविघ्ननिवारिणि, सर्वाङ्गसुन्दरि,
सर्वसौभाग्यदायिनि, सर्वार्थसाधकचक्रस्वामिनि,
कुलोत्तीर्णयोगिनि,
श्रीचक्र षष्टावरणदेवताः -१२
सर्वज्ञे, सर्वशक्ते, सर्वैश्वर्यप्रदायिनि, सर्वज्ङानमयि,
सर्वव्याधिविनाशिनि, सर्वाधार स्वरूपे, सर्वपापहरे,
सर्वरक्षास्वरूपिणि, सर्वेप्सितफलप्रदे, सर्वरक्षाकर
चक्रस्वामिनि, निगर्भयोगिनि,
श्रीचक्र सप्तमावरणदेवताः -१०
वशिनि, कामेश्वरि, मोदिनि, विमले, अरुणे, जयिनि,
सर्वेश्वरि, कौलिनिवशिनि, सर्वरोगहरचक्रस्वामिनि,
रहस्ययोगिनि,
श्रीचक्र अष्टमावरणदेवताः -९
बाणिनि, चापिनि, पाशिनि, अङ्कुशिनि, महाकामेश्वरि,
महावज्रेश्वरि, महाभगमालिनि, सर्वसिद्धिप्रदचक्रस्वामिनि,
अतिरहस्ययोगिनि,
श्रीचक्र नवमावरणदेवताः -३
श्री श्री महाभट्टारिके, सर्वानन्दमयचक्रस्वामिनि,
परापरातिरहस्ययोगिनि,
नवचक्रेश्वरी नामानि -९
त्रिपुरे, त्रिपुरेशि, त्रिपुरसुन्दरि, त्रिपुरवासिनि,
त्रिपुराश्रीः, त्रिपुरमालिनि, त्रिपुरसिद्धे, त्रिपुराम्बा,
महात्रिपुरसुन्दरि,
श्रीदेवी विशेषणानि -नमस्कारनवाक्षरीच -९
महामहेश्वरि, महामहाराज्ञि, महामहाशक्ते, महामहागुप्ते,
महामहाज्ञप्ते, महामहानन्दे, महामहास्कन्धे, महामहाशये,
महामहा श्रीचक्रनगरसाम्राज्ञि, नमस्ते नमस्ते नमस्ते नमः ।
फलश्रुतिः
एषा विद्या महासिद्धिदायिनी स्मृतिमात्रतः ।
अग्निवातमहाक्षोभे राजाराष्ट्रस्यविप्लवे ॥
लुण्ठने तस्करभये सङ्ग्रामे सलिलप्लवे ।
समुद्रयानविक्षोभे भूतप्रेतादिके भये ॥
अपस्मारज्वरव्याधिमृत्युक्षामादिजेभये ।
शाकिनी पूतनायक्षरक्षःकूष्माण्डजे भये ॥
मित्रभेदे ग्रहभये व्यसनेष्वाभिचारिके ।
अन्येष्वपि च दोषेषु मालामन्त्रं स्मरेन्नरः ॥
सर्वोपद्रवनिर्मुक्तस्साक्षाच्छिवमयोभवेत् ।
आपत्कालेनित्यपूजाम् विस्तारात्कर्तुमारभेत् ॥
एकवारं जपध्यानम् सर्वपूजाफलं लभेत् ।
नवावर्णदेवीनां ललिताया महौजनः ॥
एकत्रगणनारूपोवेदवेदाङ्गगोचरः ।
सर्वागमरहस्यार्थः स्मरणात्पापनाशिनी ॥
ललितायामहेशान्या माला विद्यामहीयसि ।
नरवश्यं नरेन्द्राणां वश्यं नारीवशङ्करम् ॥
अणिमादिगुणैश्वर्यं रञ्जनं पापभञ्जनम् ।
तत्तदावरणस्थायि देवताबृन्दमन्त्रकम् ॥
मालामन्त्रं परम् गुह्यां परं धामप्रकीर्तितम् ।
शक्तिमालापञ्चधास्याच्छिवमालाचतादृशि ॥
तस्माद्गोप्यतराद्गोप्यं रहस्यं भुक्तिमुक्तिदम् ॥
इति श्री वामकेश्वरतन्त्रे उमामहेश्वरसंवादे
देवीखड्गमालास्तोत्ररत्नं समाप्तम् ।
6……साबर-शक्ति-पाठ
पूर्व-पीठिका..
।। विनियोग ।।
श्रीसाबर-शक्ति-पाठ का, भुजंग-प्रयात है छन्द ।
भारद्वाज शक्ति ऋषि, श्रीमहा-काली काल प्रचण्ड ।।
ॐ क्रीं काली शरण-बीज, है वायु-तत्त्व प्रधान ।
कालि प्रत्यक्ष भोग-मोक्षदा, निश-दिन धरे जो ध्यान ।।
।। ध्यान ।।
मेघ-वर्ण शशि मुकुट में, त्रिनयन पीताम्बर-धारी ।
मुक्त-केशी मद-उन्मत्त सितांगी, शत-दल-कमल-विहारी ।।
गंगाधर ले सर्प हाथ में, सिद्धि हेतु श्री-सन्मुख नाचै ।
निरख ताण्डव छवि हँसत, कालिका ‘वरं ब्रूहि’ उवाचै ।।
।। पाठ-प्रार्थना ।।
जय जय श्रीशिवानन्दनाथ ! भगवम्त भक्त-दुःख-हारी ।
करो स्वीकार साबर-शक्ति-पाठ, हे महा-काल-अवतारी ।
श्रीमहा-लक्ष्मी कमला
ॐ विष्णु-प्रिया दिग्दलस्था नमो, विश्वाधार-जननि कमलायै नमो ।
बीजाक्षरों की तुम्हीं सृष्टि करती, चरण-शरण भक्त के क्लेश हरती ।।
सिन्धु-कन्या माया-बीज-काया, मोह-पाश से जग को भ्रमाया ।
योगी भी हुए नहैं हैरान तुमसे, कराओ अन्तर्बहिर्याग नित्य मुझसे ।।
न करता हूँ जाप-पूजा मैं तेरी, इतना ही जानता हूँ माँ तू मेरी ।
पद्म-चक्र-शंख-मधु-पात्र धारे, विकट वीर योद्धा तूने सँहारे ।।
श्रीअपराजिता वैष्णवी नाम तेरा, माँ एकाक्षरी तू आधार मेरा ।
तू ही गुरु-गोविन्द करुणा-मयी, जै जै श्रीशिवानन्दनाथ-लीला-मयी ।।
ऐरावत है शुण्डाभिषेक करते, दे प्रत्यक्ष दरशन हे विश्व-भर्ते ।
योग-भोगदा रमा विष्णु-रुपा, मेरी कामधेनु काम-स्वरुपा ।।
सिद्धैशवर्य-दात्री हे शेष-शायी, करे दास बिनती करो माँ सहाई ।
पद्मा चञ्चला श्रीलक्ष्मी कहाई, पीताम्बरा तू गरुड़-वाहना सुहाई ।।
त्रिलोक-मोहन-करी कामिनी, जयति जय श्रीहरि-भामिनी ।
रुक्मिणी राज्ञी अर्थ-क्लेश-त्राता, जय श्रीधन-दात्री विश्व-माता ।।
महा-लक्ष्मी लक्ष्मणा श्यामलांगी, पद्म-गन्धा श्री श्रीकोमलांगी ।
कालिन्दी कमले कर्म-दोष-हन्त्री, सुदर्शनीया ग्रीवा में माला वैजन्ती ।।
श्रीमहा-लक्ष्मी कमला समर्पणम् ।।
विधि :- ।।श्रीसाबर-शक्ति-पाठं सम्पूर्णं, शुभं भुयात्।।
उक्त श्री ‘साबर-शक्ति-पाठ‘ के रचियता ‘ योगिराज’ श्री शक्तिदत्त शिवेन्द्राचार्य नामक कोई महात्मा रहे है। उनके उक्त पाठ की प्रत्येक पंक्ति रहस्य-मयी है। पूर्ण श्रद्धा-सहित पाठ करने वाले को सफलता निश्चित रुप से मिलती है, ऐसी मान्यता है।
किसी कामना से इस पाठ का प्रयोग करने से पहले तीन रात्रियों में लगातार इस पाठ की १११ आवृत्तियाँ ‘अखण्ड-दीप-ज्योति’ के समक्ष बैठकर कर लेनी चाहिए। तदनन्तर निम्न प्रयोग-विधि के अनुसार निर्दिष्ट संख्या में निर्दिष्ट काल में अभीष्ट कामना की सिद्धि मिल सकेगी।
7…..।। श्रीकालिकाष्टकम् ।।
धयानम्
गलद् रक्तमण्डावलीकण्ठमाला महाघोररावा सुदंष्ट्रा कराला ।
विवस्त्रा श्मशानलया मुक्तकेशी महाकालकामाकुला कालिकेयम् ॥१॥
भजे वामयुग्मे शिरोsसिं दधाना वरं दक्षयुग्मेsभयं वै तथैव ।
सुमध्याsपि तुङ्गस्तनाभारनम्रा लसद् रक्तसृक्कद्वया सुस्मितास्या ॥२॥
शवद्वन्द्वकर्णावतंसा सुकेशी लसत्प्रेतपाणिं प्रयुक्तैककाञ्ची ।
शवाकारमञ्चाधिरूढा शिवाभि-श्चतुर्दिक्षशब्दायमानाsभिरेजे ॥३॥
स्तुति:
विरञ्च्यादिदेवास्त्रयस्ते गुणांस्त्रीन् समाराध्य कालीं प्रधाना बभूवु: ।
अनादिं सुरादिं मखादिं भवादिं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा: ॥४॥
जगन्मोहनीयं तु वाग्वादिनीयं सुहृत्पोषिणीशत्रुसंहारणीयम् ।
वचस्तम्भनीयं किमुच्चाटनीयं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा: ॥५॥
इयं स्वर्गदात्री पुन: कल्पवल्ली मनोजांस्तु कामान् यथार्थं प्रकुर्यात् ।
तथा ते कृतार्था भवन्तीति नित्यं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा: ॥६॥
सुरापानमत्ता सभुक्तानुरक्ता लसत्पूतचित्ते सदाविर्भवत्ते ।
जपध्यानपूजासुधाधौतपङ्का स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा: ॥७॥
चिदान्दकन्दं हसन् मन्दमन्दं शरच्चन्द्रकोटिप्रभापुञ्जबिम्बम् ।
मुनीनां कवीनां हृदि द्योतयन्तं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥८॥
महामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा कदाचिद् विचित्राकृतिर्योगमाया ।
न बाला न वृद्धा न कामातुरापि स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा: ॥९॥
क्षमस्वापराधं महागुप्तभावं मया लोकमध्ये प्रकाशीकृत यत् ।
तव ध्यानपूतेन चापल्यभावात् स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा: ॥१०॥
फलश्रुति:
यदि ध्यानयुक्तं पठेद् यो मनुष्य-स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च ।
गृह चाष्टसिद्धिर्मृते चापि मुक्ति: स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा: ॥११॥
॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं श्रीकालिकाष्टकं सम्पूर्णम् ॥
8….
अस्य श्री त्रैलोकयमोहन रहस्य कवचस्य ।
त्रिपुरारि ऋषिः – विराट् छन्दः – भगवति कामकलाकाली देवता ।
फ्रें बीजं – योगिनी शक्तिः- क्लीं कीलकं – डाकिनि तत्त्वं
भ्गावती श्री कामकलाकाली अनुग्रह प्रसाद सिध्यर्ते जपे विनियोगः॥
—
ॐ ऐं श्रीं क्लीं शिरः पातु फ्रें ह्रीं छ्रीं मदनातुरा।
स्त्रीं ह्रूं क्षौं ह्रीं लं ललाटं पातु ख्फ्रें क्रौं करालिनी॥ १
आं हौं फ्रों क्षूँ मुखं पातु क्लूं ड्रं थ्रौं चन्ण्डनायिका।
हूं त्रैं च्लूं मौः पातु दृशौ प्रीं ध्रीं क्ष्रीं जगदाम्बिका॥ २
क्रूं ख्रूं घ्रीं च्लीं पातु कर्णौ ज्रं प्लैं रुः सौं सुरेश्वरी।
गं प्रां ध्रीं थ्रीं हनू पातु अं आं इं ईं श्मशानिनी॥ ३
जूं डुं ऐं औं भ्रुवौ पातु कं खं गं घं प्रमाथिनी।
चं छं जं झं पातु नासां टं ठं डं ढं भगाकुला॥ ४
तं थं दं धं पात्वधरमोष्ठं पं फं रतिप्रिया।
बं भं यं रं पातु दन्तान् लं वं शं सं चं कालिका॥ ५
हं क्षं क्षं हं पातु जिह्वां सं शं वं लं रताकुला।
वं यं भं वं चं चिबुकं पातु फं पं महेश्वरी॥ ६
धं दं थं तं पातु कण्ठं ढं डं ठं टं भगप्रिया।
झं जं छं चं पातु कुक्षौ घं गं खं कं महाजटा॥ ७
ह्सौः ह्स्ख्फ्रैं पातु भुजौ क्ष्मूं म्रैं मदनमालिनी।
ङां ञीं णूं रक्षताज्जत्रू नैं मौं रक्तासवोन्मदा ॥ ८
ह्रां ह्रीं ह्रूं पातु कक्षौ में ह्रैं ह्रौं निधुवनप्रिया।
क्लां क्लीं क्लूं पातु हृदयं क्लैं क्लौं मुण्डावतंसिका॥ ९
श्रां श्रीं श्रूं रक्षतु करौ श्रैं श्रौं फेत्कारराविणी।
क्लां क्लीं क्लूं अङ्गुलीः पातु क्लैं क्लौं च नारवाहिनी॥ १०
च्रां च्रीं च्रूं पातु जठरं च्रैं च्रौं संहाररूपिणी।
छ्रां छ्रीं छ्रूं रक्षतान्नाभिं छ्रैं छ्रौं सिद्धकरालिनी॥ ११
स्त्रां स्त्रीं स्त्रूं रक्षतात् पार्श्वौ स्त्रैं स्त्रौं निर्वाणदायिनी।
फ्रां फ्रीं फ्रूं रक्षतात् पृष्ठं फ्रैं फ्रौं ज्ञानप्रकाशिनी॥ १२
क्षां क्षीं क्षूं रक्षतु कटिं क्षैं क्षौं नृमुण्डमालिनी।
ग्लां ग्लीं ग्लूं रक्षतादूरू ग्लैं ग्लौं विजयदायिनी॥ १३
ब्लां ब्लीं ब्लूं जानुनी पातु ब्लैं ब्लौं महिषमर्दिनी।
प्रां प्रीं प्रूं रक्षताज्जङ्घे प्रैं प्रौं मृत्युविनाशिनी॥ १४
थ्रां थ्रीं थ्रूं चरणौ पातु थ्रैं थ्रौं संसारतारिणी।
ॐ फ्रें सिद्ध्विकरालि ह्रीं छ्रीं ह्रं स्त्रीं फ्रें नमः॥ १५
सर्वसन्धिषु सर्वाङ्गं गुह्यकाली सदावतु।
ॐ फ्रें सिद्ध्विं हस्खफ्रें ह्सफ्रें ख्फ्रें करालि ख्फ्रें हस्खफ्रें ह्स्फ्रें फ्रें ॐ स्वाहा॥ १६
रक्षताद् घोरचामुण्डा तु कलेवरं वहक्षमलवरयूं।
अव्यात् सदा भद्रकाली प्राणानेकादशेन्द्रियान् ॥ १७
ह्रीं श्रीं ॐ ख्फ्रें ह्स्ख्फ्रें हक्षम्लब्रयूं
न्क्ष्रीं नज्च्रीं स्त्रीं छ्रीं ख्फ्रें ठ्रीं ध्रीं नमः।
यत्रानुक्त्तस्थलं देहे यावत्तत्र च तिष्ठति॥ १८
उक्तं वाऽप्यथवानुक्तं करालदशनावतु
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं हूं स्त्रीं ध्रीं फ्रें क्षूं क्शौं
क्रौं ग्लूं ख्फ्रें प्रीं ठ्रीं थ्रीं ट्रैं ब्लौं फट् नमः स्वाहा॥ १९
सर्वमापादकेशाग्रं काली कामकलावतु॥ २०
5…..श्रीचक्रराजस्तोत्रम् ॥
प्रोक्ता पञ्चदशी विद्या महात्रिपुरसुन्दरी ।
श्रीमहाषोडशी प्रोक्ता महामाहेश्वरी सदा ॥ १ ॥
प्रोक्ता श्रीदक्षिणा काली महाराज्ञीति संज्ञया ।
लोके ख्याता महाराज्ञी नाम्ना दक्षिणकालिका ।
आगमेषु महाशक्तिः ख्याता श्रीभुवनेश्वरी ॥ २ ॥
महागुप्ता गुह्यकाली नाम्ना शास्त्रेषु कीर्तिता ।
महोग्रतारा निर्दिष्टा महाज्ञप्तेति भूतले ॥ ३ ॥
महानन्दा कुब्जिका स्यात् लोकेऽत्र जगदम्बिका ।
त्रिशक्त्याद्याऽत्र चामुण्डा महास्पन्दा प्रकीर्तिता ॥ ४ ॥
महामहाशया प्रोक्ता बाला त्रिपुरसुन्दरी ।
श्रीचक्रराजः सम्प्रोक्तस्त्रिभागेन महेश्वरि ॥ ५ ॥
ब्रह्मीभूत पूज्य श्रीस्वामी विद्यारण्य की कृपा से प्राप्त
हिन्दी अनुवाद
पञ्चदशी विद्या महात्रिपुरसुन्दरी और श्रीमहाषोडशी विद्या
सदैव महामाहेश्वरी कही गई हैं । श्रीदक्षिणा काली को
महाराज्ञी नाम से कहा गया है और श्री भुवनेश्वरी आगमों में
महाशक्ति नाम से प्रसिद्ध हैं । शास्त्रों में गुह्यकाली नाम से
महागुप्ता का वर्णन है और पृथ्वी पर महोग्रतारा महाज्ञप्ता
बताई गई हैं । जगदम्बा कुब्जिका इस लोक में महानन्दा हैं और
त्रिशक्त्यात्मिका आद्या चामुण्डा महास्पन्दा कही गई हैं ।
बाला त्रिपुरसुन्दरी महामहाशया कही गई हैं । हे महेश्वर!
इस प्रकार तीन भागों में श्रीचक्रराज का वर्णन है ।
3…॥ देवी खड्गमाला स्तोत्ररत्नम् ॥
प्रार्थना
ह्रीङ्काराननगर्भितानलशिखां सौः क्लीङ्कलाम् बिभ्रतीं
सौवर्णाम्बरधारिणीं वरसुधाधौतां त्रिनेत्रोज्ज्वलाम् ।
वन्दे पुस्तकपाशमङ्कुशधरां स्रग्भूषितामुज्ज्वलां
त्वां गौरीं त्रिपुरां परात्परकलां श्रीचक्रसञ्चारिणीम् ॥
अस्य श्री शुद्धशक्तिमालामहामन्त्रस्य, उपस्थेन्द्रियाधिष्ठायी
वरुणादित्य ऋषयः देवी गायत्री छन्दः सात्विक
ककारभट्टारकपीठस्थित कामेश्वराङ्कनिलया महाकामेश्वरी श्री
ललिता भट्टारिका देवता, ऐं बीजं क्लीं शक्तिः, सौः कीलकं मम
खड्गसिद्ध्यर्थे सर्वाभीष्टसिद्ध्यर्थे जपे विनियोगः, मूलमन्त्रेण
षडङ्गन्यासं कुर्यात् ।
ध्यानम्
तादृशं खड्गमाप्नोति येव हस्तस्थितेनवै
अष्टादशमहाद्वीपसम्राड्भोक्ताभविष्यति
आरक्ताभान्त्रिनेत्रामरुणिमवसनाम् रत्नताटङ्करम्यां
हस्ताम्भोजैस्सपाशाङ्कुशमदनधनुस्सायकैर्विस्फुरन्तीम् ।
आपीनोत्तुङ्गु वक्षोरुहकलशलुठत्तारहारोज्ज्वलाङ्गीं
ध्यायेदम्भोरुहस्थामरुणिमवसनामीश्वरीमीश्वराणाम् ॥
लमित्यादिपञ्च पूजाम् कुर्यात्, यथाशक्ति मूलमन्त्रम् जपेत् ।
लं -पृथिवीतत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै
गन्धं परिकल्पयामि -नमः
हं -आकाशतत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै पुष्पं
परिकल्पयामि -नमः
यं -वायुतत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै धूपं
परिकल्पयामि -नमः
रं -तेजस्तत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै दीपं
परिकल्पयामि -नमः
वं -अमृततत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै
अमृतनैवेद्यं परिकल्पयामि -नमः
सं -सर्वतत्त्वात्मिकायै श्री ललितात्रिपुरसुन्दरी पराभट्टारिकायै
ताम्बूलादिसर्वोपचारान् परिकल्पयामि -नमः
श्री देवी सम्बोधनं -१
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं सौः ॐ नमस्त्रिपुरसुन्दरि,
न्यासाङ्गदेवताः -६
हृदयदेवि, शिरोदेवि, शिखादेवि, कवचदेवि, नेत्रदेवि,
अस्त्रदेवि,
तिथिनित्यादेवताः -१६
कामेश्वरि, भगमालिनि, नित्यक्लिन्ने, भेरुण्डे, वह्निवासिनि,
महावज्रेश्वरि, शिवदूति, त्वरिते, कुलसुन्दरि, नित्ये,
नीलपताके, विजये, सर्वमङ्गले, ज्वालामालिनि, चित्रे,
महानित्ये,
दिव्यौघगुरवः -७
परमेश्वर, परमेश्वरि, मित्रेशमयि, उड्डीशमयि,
चर्यानाथमयि, लोपामुद्रमयि, अगस्त्यमयि,
सिद्धौघगुरवः -४
कालतापशमयि, धर्माचार्यमयि, मुक्तकेशीश्वरमयि, दीपकलानाथमयि,
मानवौघगुरवः -८
विष्णुदेवमयि, प्रभाकरदेवमयि, तेजोदेवमयि, मनोजदेवमयि,
कल्याणदेवमयि, वासुदेवमयि, रत्नदेवमयि, श्रीरामानन्दमयि,
श्रीचक्र प्रथमावरणदेवताः -३२
अणिमासिद्धे, लघिमासिद्धे, गरिमासिद्धे, महिमासिद्धे,
ईशित्वसिद्धे, वशित्वसिद्धे, प्राकाम्यसिद्धे, भुक्तिसिद्धे,
इच्छासिद्धे, प्राप्तिसिद्धे, सर्वकामसिद्धे, ब्राह्मि,
माहेश्वरि, कौमारि, वैष्णवि, वाराहि, माहेन्द्रि, चामुण्डे,
महालक्ष्मि, सर्वसङ्क्षोभिणि, सर्वविद्राविणि, सर्वाकर्षिणि,
सर्ववशङ्करि, सर्वोन्मादिनि, सर्वमहाङ्कुशे, सर्वखेचरि,
सर्वबीजे, सर्वयोने, सर्वत्रिखण्डे, त्रैलोक्यमोहन
चक्रस्वामिनि, प्रकटयोगिनि,
श्रीचक्र द्वितीयावरणदेवताः -१८
कामाकर्षिणि, बुद्ध्याकर्षिणि, अहंकाराकर्षिणि, शब्दाकर्षिणि,
स्पर्शाकर्षिणि, रूपाकर्षिणि, रसाकर्षिणि, गन्धाकर्षिणि,
चित्ताकर्षिणि, धैर्याकर्षिणि, स्मृत्याकर्षिणि, नामाकर्षिणि,
बीजाकर्षिणि, आत्माकर्षिणि, अमृताकर्षिणि, शरीराकर्षिणि,
सर्वाशापरिपूरकचक्रस्वामिनि, गुप्तयोगिनि,
श्रीचक्र तृतीयावरणदेवताः -१०
अनङ्गकुसुमे, अनङ्गमेखले, अनङ्गमदने, अनङ्गमदनातुरे,
अनङ्गरेखे, अनङ्गवेगिनि, अनङ्गाङ्कुशे, अनङ्गमालिनि,
सर्वसङ्क्षोभणचक्रस्वामिनि, गुप्ततरयोगिनि,
श्रीचक्र चतुर्थावरणदेवताः -१६
सर्वसङ्क्षोभिणि, सर्वविद्राविनि, सर्वाकर्षिणि,
सर्वह्लादिनि, सर्वसम्मोहिनि, सर्वस्तम्भिनि, सर्वजृम्भिणि,
सर्ववशङ्करि, सर्वरञ्जनि, सर्वोन्मादिनि, सर्वार्थसाधिके,
सर्वसम्पत्तिपूरिणि, सर्वमन्त्रमयि, सर्वद्वन्द्वक्षयङ्करि,
सर्वसौभाग्यदायकचक्रस्वामिनि, सम्प्रदाययोगिनि,
श्रीचक्र पञ्चमावरणदेवताः -१२
सर्वसिद्धिप्रदे, सर्वसम्पत्प्रदे, सर्वप्रियङ्करि,
सर्वमङ्गलकारिणि, सर्वकामप्रदे, सर्वदुःखविमोचनि,
सर्वमृत्युप्रशमनि, सर्वविघ्ननिवारिणि, सर्वाङ्गसुन्दरि,
सर्वसौभाग्यदायिनि, सर्वार्थसाधकचक्रस्वामिनि,
कुलोत्तीर्णयोगिनि,
श्रीचक्र षष्टावरणदेवताः -१२
सर्वज्ञे, सर्वशक्ते, सर्वैश्वर्यप्रदायिनि, सर्वज्ङानमयि,
सर्वव्याधिविनाशिनि, सर्वाधार स्वरूपे, सर्वपापहरे,
सर्वरक्षास्वरूपिणि, सर्वेप्सितफलप्रदे, सर्वरक्षाकर
चक्रस्वामिनि, निगर्भयोगिनि,
श्रीचक्र सप्तमावरणदेवताः -१०
वशिनि, कामेश्वरि, मोदिनि, विमले, अरुणे, जयिनि,
सर्वेश्वरि, कौलिनिवशिनि, सर्वरोगहरचक्रस्वामिनि,
रहस्ययोगिनि,
श्रीचक्र अष्टमावरणदेवताः -९
बाणिनि, चापिनि, पाशिनि, अङ्कुशिनि, महाकामेश्वरि,
महावज्रेश्वरि, महाभगमालिनि, सर्वसिद्धिप्रदचक्रस्वामिनि,
अतिरहस्ययोगिनि,
श्रीचक्र नवमावरणदेवताः -३
श्री श्री महाभट्टारिके, सर्वानन्दमयचक्रस्वामिनि,
परापरातिरहस्ययोगिनि,
नवचक्रेश्वरी नामानि -९
त्रिपुरे, त्रिपुरेशि, त्रिपुरसुन्दरि, त्रिपुरवासिनि,
त्रिपुराश्रीः, त्रिपुरमालिनि, त्रिपुरसिद्धे, त्रिपुराम्बा,
महात्रिपुरसुन्दरि,
श्रीदेवी विशेषणानि -नमस्कारनवाक्षरीच -९
महामहेश्वरि, महामहाराज्ञि, महामहाशक्ते, महामहागुप्ते,
महामहाज्ञप्ते, महामहानन्दे, महामहास्कन्धे, महामहाशये,
महामहा श्रीचक्रनगरसाम्राज्ञि, नमस्ते नमस्ते नमस्ते नमः ।
फलश्रुतिः
एषा विद्या महासिद्धिदायिनी स्मृतिमात्रतः ।
अग्निवातमहाक्षोभे राजाराष्ट्रस्यविप्लवे ॥
लुण्ठने तस्करभये सङ्ग्रामे सलिलप्लवे ।
समुद्रयानविक्षोभे भूतप्रेतादिके भये ॥
अपस्मारज्वरव्याधिमृत्युक्षामादिजेभये ।
शाकिनी पूतनायक्षरक्षःकूष्माण्डजे भये ॥
मित्रभेदे ग्रहभये व्यसनेष्वाभिचारिके ।
अन्येष्वपि च दोषेषु मालामन्त्रं स्मरेन्नरः ॥
सर्वोपद्रवनिर्मुक्तस्साक्षाच्छिवमयोभवेत् ।
आपत्कालेनित्यपूजाम् विस्तारात्कर्तुमारभेत् ॥
एकवारं जपध्यानम् सर्वपूजाफलं लभेत् ।
नवावर्णदेवीनां ललिताया महौजनः ॥
एकत्रगणनारूपोवेदवेदाङ्गगोचरः ।
सर्वागमरहस्यार्थः स्मरणात्पापनाशिनी ॥
ललितायामहेशान्या माला विद्यामहीयसि ।
नरवश्यं नरेन्द्राणां वश्यं नारीवशङ्करम् ॥
अणिमादिगुणैश्वर्यं रञ्जनं पापभञ्जनम् ।
तत्तदावरणस्थायि देवताबृन्दमन्त्रकम् ॥
मालामन्त्रं परम् गुह्यां परं धामप्रकीर्तितम् ।
शक्तिमालापञ्चधास्याच्छिवमालाचतादृशि ॥
तस्माद्गोप्यतराद्गोप्यं रहस्यं भुक्तिमुक्तिदम् ॥
इति श्री वामकेश्वरतन्त्रे उमामहेश्वरसंवादे
देवीखड्गमालास्तोत्ररत्नं समाप्तम् ।
6……साबर-शक्ति-पाठ
पूर्व-पीठिका..
।। विनियोग ।।
श्रीसाबर-शक्ति-पाठ का, भुजंग-प्रयात है छन्द ।
भारद्वाज शक्ति ऋषि, श्रीमहा-काली काल प्रचण्ड ।।
ॐ क्रीं काली शरण-बीज, है वायु-तत्त्व प्रधान ।
कालि प्रत्यक्ष भोग-मोक्षदा, निश-दिन धरे जो ध्यान ।।
।। ध्यान ।।
मेघ-वर्ण शशि मुकुट में, त्रिनयन पीताम्बर-धारी ।
मुक्त-केशी मद-उन्मत्त सितांगी, शत-दल-कमल-विहारी ।।
गंगाधर ले सर्प हाथ में, सिद्धि हेतु श्री-सन्मुख नाचै ।
निरख ताण्डव छवि हँसत, कालिका ‘वरं ब्रूहि’ उवाचै ।।
।। पाठ-प्रार्थना ।।
जय जय श्रीशिवानन्दनाथ ! भगवम्त भक्त-दुःख-हारी ।
करो स्वीकार साबर-शक्ति-पाठ, हे महा-काल-अवतारी ।
श्रीमहा-लक्ष्मी कमला
ॐ विष्णु-प्रिया दिग्दलस्था नमो, विश्वाधार-जननि कमलायै नमो ।
बीजाक्षरों की तुम्हीं सृष्टि करती, चरण-शरण भक्त के क्लेश हरती ।।
सिन्धु-कन्या माया-बीज-काया, मोह-पाश से जग को भ्रमाया ।
योगी भी हुए नहैं हैरान तुमसे, कराओ अन्तर्बहिर्याग नित्य मुझसे ।।
न करता हूँ जाप-पूजा मैं तेरी, इतना ही जानता हूँ माँ तू मेरी ।
पद्म-चक्र-शंख-मधु-पात्र धारे, विकट वीर योद्धा तूने सँहारे ।।
श्रीअपराजिता वैष्णवी नाम तेरा, माँ एकाक्षरी तू आधार मेरा ।
तू ही गुरु-गोविन्द करुणा-मयी, जै जै श्रीशिवानन्दनाथ-लीला-मयी ।।
ऐरावत है शुण्डाभिषेक करते, दे प्रत्यक्ष दरशन हे विश्व-भर्ते ।
योग-भोगदा रमा विष्णु-रुपा, मेरी कामधेनु काम-स्वरुपा ।।
सिद्धैशवर्य-दात्री हे शेष-शायी, करे दास बिनती करो माँ सहाई ।
पद्मा चञ्चला श्रीलक्ष्मी कहाई, पीताम्बरा तू गरुड़-वाहना सुहाई ।।
त्रिलोक-मोहन-करी कामिनी, जयति जय श्रीहरि-भामिनी ।
रुक्मिणी राज्ञी अर्थ-क्लेश-त्राता, जय श्रीधन-दात्री विश्व-माता ।।
महा-लक्ष्मी लक्ष्मणा श्यामलांगी, पद्म-गन्धा श्री श्रीकोमलांगी ।
कालिन्दी कमले कर्म-दोष-हन्त्री, सुदर्शनीया ग्रीवा में माला वैजन्ती ।।
श्रीमहा-लक्ष्मी कमला समर्पणम् ।।
विधि :- ।।श्रीसाबर-शक्ति-पाठं सम्पूर्णं, शुभं भुयात्।।
उक्त श्री ‘साबर-शक्ति-पाठ‘ के रचियता ‘ योगिराज’ श्री शक्तिदत्त शिवेन्द्राचार्य नामक कोई महात्मा रहे है। उनके उक्त पाठ की प्रत्येक पंक्ति रहस्य-मयी है। पूर्ण श्रद्धा-सहित पाठ करने वाले को सफलता निश्चित रुप से मिलती है, ऐसी मान्यता है।
किसी कामना से इस पाठ का प्रयोग करने से पहले तीन रात्रियों में लगातार इस पाठ की १११ आवृत्तियाँ ‘अखण्ड-दीप-ज्योति’ के समक्ष बैठकर कर लेनी चाहिए। तदनन्तर निम्न प्रयोग-विधि के अनुसार निर्दिष्ट संख्या में निर्दिष्ट काल में अभीष्ट कामना की सिद्धि मिल सकेगी।
7…..।। श्रीकालिकाष्टकम् ।।
धयानम्
गलद् रक्तमण्डावलीकण्ठमाला महाघोररावा सुदंष्ट्रा कराला ।
विवस्त्रा श्मशानलया मुक्तकेशी महाकालकामाकुला कालिकेयम् ॥१॥
भजे वामयुग्मे शिरोsसिं दधाना वरं दक्षयुग्मेsभयं वै तथैव ।
सुमध्याsपि तुङ्गस्तनाभारनम्रा लसद् रक्तसृक्कद्वया सुस्मितास्या ॥२॥
शवद्वन्द्वकर्णावतंसा सुकेशी लसत्प्रेतपाणिं प्रयुक्तैककाञ्ची ।
शवाकारमञ्चाधिरूढा शिवाभि-श्चतुर्दिक्षशब्दायमानाsभिरेजे ॥३॥
स्तुति:
विरञ्च्यादिदेवास्त्रयस्ते गुणांस्त्रीन् समाराध्य कालीं प्रधाना बभूवु: ।
अनादिं सुरादिं मखादिं भवादिं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा: ॥४॥
जगन्मोहनीयं तु वाग्वादिनीयं सुहृत्पोषिणीशत्रुसंहारणीयम् ।
वचस्तम्भनीयं किमुच्चाटनीयं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा: ॥५॥
इयं स्वर्गदात्री पुन: कल्पवल्ली मनोजांस्तु कामान् यथार्थं प्रकुर्यात् ।
तथा ते कृतार्था भवन्तीति नित्यं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा: ॥६॥
सुरापानमत्ता सभुक्तानुरक्ता लसत्पूतचित्ते सदाविर्भवत्ते ।
जपध्यानपूजासुधाधौतपङ्का स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा: ॥७॥
चिदान्दकन्दं हसन् मन्दमन्दं शरच्चन्द्रकोटिप्रभापुञ्जबिम्बम् ।
मुनीनां कवीनां हृदि द्योतयन्तं स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा:॥८॥
महामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा कदाचिद् विचित्राकृतिर्योगमाया ।
न बाला न वृद्धा न कामातुरापि स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा: ॥९॥
क्षमस्वापराधं महागुप्तभावं मया लोकमध्ये प्रकाशीकृत यत् ।
तव ध्यानपूतेन चापल्यभावात् स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा: ॥१०॥
फलश्रुति:
यदि ध्यानयुक्तं पठेद् यो मनुष्य-स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च ।
गृह चाष्टसिद्धिर्मृते चापि मुक्ति: स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवा: ॥११॥
॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं श्रीकालिकाष्टकं सम्पूर्णम् ॥
8….
स्वर्णाकर्षण भैरवस्तोत्रम्
ॐ नमस्ते भैरवाय ब्रह्मविष्णु शिवात्मने । नमस्त्रैलोक्य वन्द्याय वरदाय वरात्मने ।।
रत्नसिंहासनस्थाय दिव्याभरण शोभिने । दिव्यमाल्य विभूषाय नमस्ते दिव्यमूर्तये ।।
नमस्तेअनेकहस्ताय अनेक शिरसे नमः । नमस्तेअनेकनेत्राय अनेक विभवे नमः ।।
नमस्तेअनेक कण्ठाय अनेकांशाय ते नमः । नमस्तेअनेक पार्श्वाय नमस्ते दिव्य तेजसे ।।
अनेकायुधयुक्ताय अनेक सुर सेविने । अनेकगुण युक्ताय महादेवाय ते नमः ।।
नमो दारिद्रयकालाय महासम्पद प्रदायिने । श्री भैरवी सयुंक्ताय त्रिलोकेशाय ते नमः ।।
दिगम्बर नमस्तुभ्यं दिव्यांगाय नमो नमः । नमोअस्तु दैत्यकालाय पापकालाय ते नमः ।।
सर्वज्ञाय नमस्तुभ्यं नमस्ते दिव्य चक्षुषे । अजिताय नमस्तुभ्यं जितामित्राय ते नमः ।।
नमस्ते रुद्ररूपाय महावीराय ते नमः । नामोअस्तवनन्तवीर्याय महाघोराय ते नमः ।।
नमस्ते घोर घोराय विश्वघोराय ते नमः । नमः उग्रायशान्ताय भक्तानांशान्तिदायिने ।।
गुरवे सर्वलोकानां नमः प्रणवरुपिणे । नमस्ते वाग्भवाख्याय दीर्घकामाय ते नमः ।।
नमस्ते कामराजाययोषित कामाय ते नमः । दीर्घमायास्वरुपाय महामाया ते नमः ।।
सृष्टिमाया स्वरूपाय विसर्गसमयाय ते । सुरलोक सुपूज्याय आपदुद्धारणाय च ।।
नमो नमो भैरवाय महादारिद्रय नाशिने । उन्मूलने कर्मठाय अलक्ष्म्याः सर्वदा नमः ।।
नमो अजामिलबद्धाय नमो लोकेश्वराय ते । स्वर्णाकर्षणशीलाय भैरवाय नमो नमः ।।
ममदारिद्रय विद्वेषणाय लक्ष्याय ते नमः । नमो लोकत्रयेशाय स्वानन्द निहिताय ते ।।
नमः श्रीबीजरुपाय सर्वकाम प्रदायिने । नमो महाभैरवाय श्रीभैरव नमो नमः ।।
धनाध्यक्ष नमस्तुभ्यं शरण्याय नमो नमः । नमः प्रसंनरुपाय सुवर्णाय नमो नमः ।।
नमस्ते मंत्ररुपाय नमस्ते मंत्ररुपिणे । नमस्ते स्वर्णरूपाय सुवर्णाय नमो नमः ।।
नमः सुवर्णवर्णाय महापुण्याय ते नमः । नमः शुद्धाय बुद्धाय नमः संसार तारिणे ।।
नमो देवाय गुह्माय प्रचलाय नमो नमः । नमस्ते बालरुपाय परेशां बलनाशिने ।।
नमस्ते स्वर्ण संस्थाय नमो भूतलवासिने । नमः पातालवासाय अनाधाराय ते नमः ।।
नमो नमस्ते शान्ताय अनन्ताय नमो नमः । द्विभुजाय नमस्तुभ्यं भुजत्रयसुशोभिने ।।
नमोअनमादी सिद्धाय स्वर्णहस्ताय ते नमः । पूर्णचन्द्र प्रतीकाशवदनाम्भोज शोभिने ।।
मनस्तेअस्तु स्वरूपाय स्वर्णालंकार शोभिने । नमः स्वर्णाकर्षणाय स्वर्णाभाय नमो नमः ।।
नमस्ते स्वर्णकण्ठाय स्वर्णाभाम्बर धारिणे । स्वर्णसिंहासनस्थाय स्वर्णपादाय ते नमः ।।
नमः स्वर्णाभपादय स्वर्णकाञ्ची सुशोभिने । नमस्ते स्वर्णजन्घाय भक्तकामदुधात्मने ।।
नमस्ते स्वर्णभक्ताय कल्पवृक्ष स्वरूपिणे । चिंतामणि स्वरूपाय नमो ब्रह्मादी सेविने ।।
कल्पद्रुमाद्यः संस्थाय बहुस्वर्ण प्रदायिने । नमो हेमाकर्षणाय भैरवाय नमो नमः ।।
स्तवेनान संतुष्टो भव लोकेश भैरव । पश्यमाम करुणादृष्टाय शरणागतवत्सल ।।
फलश्रुतिः
श्री महाभैरवस्येदं स्तोत्रमुक्तं सुदुर्लभम । मन्त्रात्मकं महापुण्यं सर्वैश्वर्यप्रदायकम ।।
यः पठेन्नित्यमेकाग्रं पातकैः स प्रमुच्यते । लभते महतीं लक्ष्मीमष्टएश्वर्यमवाप्नुयात ।।
चिंतामणिमवाप्नोति धेनुं कल्पतरुं ध्रुवम । स्वर्णराशिं वाप्नोति शीघ्रमेव स मानवः ।।
त्रिसंध्यं यः पठेत स्तोत्रं दशावृत्या नरोत्तमः । स्वप्ने श्रीभैरवस्तस्य साक्षाद भूत्वा जगदगुरुः ।।
स्वर्णाराशिं ददात्यस्मै तत्क्षणं नास्ति संशयः । अष्टावृत्या पठेत यस्तु संध्यायां वा नरोत्तमः ।।
सर्वदा यः पठेत स्तोत्रं भैरवश्य महात्मनः ।।
लोकत्रयं वाशिकुर्यादचलां श्रियमाप्नुयात । न भयं विद्यते नवापि विषभूतादी सम्भवम ।।
अष्ट पञ्चाशद वर्णाढयो मन्त्रराजः प्रकीर्तितः । दारिद्रय दुःख शमनः स्वर्णाकर्षण कारकः ।।
य एन सन्जपेद धीमान स्तोत्रं वा प्रयठेत सदा । महाभैरव सायुज्यं सो अन्तकाले लभेद ध्रुवम ।।
स्वर्णाकर्षण मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं आपदुध्दरणाय ह्रां ह्रीं ह्रूं अजामिलबध्दाय लोकेश्वराय स्वार्णाकर्षणभैरवाय ममदारिद्रय विद्वेषणाय महाभैरवाय नमः श्रीं ह्रीं ऐं ।
यह श्री स्वर्ण भैरव तंत्र है, इस त्रान्त्रिक क्रिया के द्वारा स्वयं श्री भैरव स्वप्न में आकर आपका मार्ग प्रदर्शन करते है । एवं दरिद्रता नाश कर लक्ष्मी प्रदान करते है ।
9….पाशुपतास्त्र स्तोत्रम
इस पाशुपत स्तोत्र का मात्र एक बार जप करने पर ही मनुष्य समस्त विघ्नों का नाश कर सकता है । सौ बार जप करने पर समस्त उत्पातो को नष्ट कर सकता है तथा युद्ध आदि में विजय प्राप्त के सकता है । इस मंत्र का घी और गुग्गल से हवं करने से मनुष्य असाध्य कार्यो को पूर्ण कर सकता है । इस पाशुपातास्त्र मंत्र के पाठ मात्र से समस्त क्लेशो की शांति हो जाती है ।
स्तोत्रम
ॐ नमो भगवते महापाशुपतायातुलबलवीर्यपराक्रमाय त्रिपन्चनयनाय नानारुपाय नानाप्रहरणोद्यताय सर्वांगडरक्ताय भिन्नांजनचयप्रख्याय श्मशान वेतालप्रियाय सर्वविघ्ननिकृन्तन रताय सर्वसिध्दिप्रदाय भक्तानुकम्पिने असंख्यवक्त्रभुजपादाय तस्मिन् सिध्दाय वेतालवित्रासिने शाकिनीक्षोभ जनकाय व्याधिनिग्रहकारिणे पापभन्जनाय सूर्यसोमाग्नित्राय विष्णु कवचाय खडगवज्रहस्ताय यमदण्डवरुणपाशाय रूद्रशूलाय ज्वलज्जिह्राय सर्वरोगविद्रावणाय ग्रहनिग्रहकारिणे दुष्टनागक्षय कारिणे ।
ॐ कृष्णपिंग्डलाय फट । हूंकारास्त्राय फट । वज्र हस्ताय फट । शक्तये फट । दण्डाय फट । यमाय फट । खडगाय फट । नैऋताय फट । वरुणाय फट । वज्राय फट । पाशाय फट । ध्वजाय फट । अंकुशाय फट । गदायै फट । कुबेराय फट । त्रिशूलाय फट । मुदगराय फट । चक्राय फट । पद्माय फट । नागास्त्राय फट । ईशानाय फट । खेटकास्त्राय फट । मुण्डाय फट । मुण्डास्त्राय फट । काड्कालास्त्राय फट । पिच्छिकास्त्राय फट । क्षुरिकास्त्राय फट । ब्रह्मास्त्राय फट । शक्त्यस्त्राय फट । गणास्त्राय फट । सिध्दास्त्राय फट । पिलिपिच्छास्त्राय फट । गंधर्वास्त्राय फट । पूर्वास्त्रायै फट । दक्षिणास्त्राय फट । वामास्त्राय फट । पश्चिमास्त्राय फट । मंत्रास्त्राय फट । शाकिन्यास्त्राय फट । योगिन्यस्त्राय फट । दण्डास्त्राय फट । महादण्डास्त्राय फट । नमोअस्त्राय फट । शिवास्त्राय फट । ईशानास्त्राय फट । पुरुषास्त्राय फट । अघोरास्त्राय फट । सद्योजातास्त्राय फट । हृदयास्त्राय फट । महास्त्राय फट । गरुडास्त्राय फट । राक्षसास्त्राय फट । दानवास्त्राय फट । क्षौ नरसिन्हास्त्राय फट । त्वष्ट्रास्त्राय फट । सर्वास्त्राय फट । नः फट । वः फट । पः फट । फः फट । मः फट । श्रीः फट । पेः फट । भूः फट । भुवः फट । स्वः फट । महः फट । जनः फट । तपः फट । सत्यं फट । सर्वलोक फट । सर्वपाताल फट । सर्वतत्व फट । सर्वप्राण फट । सर्वनाड़ी फट । सर्वकारण फट । सर्वदेव फट । ह्रीं फट । श्रीं फट । डूं फट । स्त्रुं फट । स्वां फट । लां फट । वैराग्याय फट । मायास्त्राय फट । कामास्त्राय फट । क्षेत्रपालास्त्राय फट । हुंकरास्त्राय फट । भास्करास्त्राय फट । चंद्रास्त्राय फट । विघ्नेश्वरास्त्राय फट । गौः गां फट । स्त्रों स्त्रौं फट । हौं हों फट । भ्रामय भ्रामय फट । संतापय संतापय फट । छादय छादय फट । उन्मूलय उन्मूलय फट । त्रासय त्रासय फट । संजीवय संजीवय फट । विद्रावय विद्रावय फट । सर्वदुरितं नाशय नाशय फट ।
आर्थिक विघ्नों के निवारण हेतु पशुपतिनाथ मंत्र.
” ॐ श्रीं पशु हुं फट् ।
10….|| श्री कुण्डलिनी स्तुति स्तोत्र ||
ॐ जन्मोद्धारनिरीक्षणीहतरुणी वेदादिबीजादिमां
नित्यं चेतसि भाव्यते भुवि कदा सद्वाक्य सञ्चारिणी
मां पातु प्रियदासभावकपदं सङ्घातये श्रीधरे !
धात्रि ! त्वं स्वयमादिदेववनिता दीनातिदिनं पशुम् II1II
रक्ताभामृतचन्द्रिका लिपिमयी सर्पाकृतिनिर्द्रिता
जाग्रत्कूर्मसमाश्रिता भगवती त्वं मां समालोकय
मांसो मांसोद्गन्धकुगन्धदोषजडितं वेदादि कार्यान्वितम्
स्वल्पास्वामलचन्द्र कोटिकिरणै-नित्यं शरीरम् कुरु II2II
सिद्धार्थी निजदोष वित्स्थलगतिर्व्याजीयते विद्यया
कुण्डल्याकुलमार्गमुक्तनगरी माया कुमार्गःश्रिया
यद्येवम् भजति प्रभातसमये मध्यान्हकालेSथवा
नित्यम् यः कुलकुण्डलीजपपदाम्भोजं स सिद्धो भवेत् II3II
वाय्वाकाशचतुर्दलेSतिविमले वाञ्छोफ़लोन्मूलके
नित्यम् सम्प्रति नित्त्यदेहघटिता साङ्केतिता भाविता
विद्या कुण्डलमानिनी स्वजननी माया क्रिया भाव्यते
यैस्तैः सिद्धकुलोद्भवैः प्रणतिभिः सत्स्तोत्रकैः शम्शुभिः II4II
वाताशन्कविमोहिनीति बलवच्छायापटोद्गामिनी
संसारादी महासुख प्रहरिणी ! तत्र स्थिता योगिनी
सर्वग्रन्थिविभेदिनी स्वभुजगा सूक्ष्मातिसूक्ष्मा परा
ब्रह्मज्ञानविनोदिनी कुलकुटीराघातनी भाव्यते II5II
वन्दे श्रीकुलकुण्डलीं त्रिवलिभिः साङ्गैः स्वयंभूप्रियां
प्रावेष्ट्याम्बर चित्तमध्यचपला बालाबलानिष्कलां
या देवी परिभाति वेदवदना सम्भावनी तापिनी
इष्टानाम् शिरसि स्वयम्भुवनिता सम्भावयामि क्रियाम् II6II
वाणी कोटि मृदङ्गनाद मदना- निश्रेणिकोटिध्वनिः
प्राणेशी प्रियताममूलकमनोल्लासैकपूर्णानना
आषाढोद्भवमेघराजिजनित ध्वान्ताननास्थायिनी
माता सा परिपातु सूक्ष्मपथगे ! मां योगिनां शङ्करी II7II
त्वामाश्रित्त्य नरा व्रजन्ति सहसा वैकुण्ठकैलासयोः
आनंदैक विलासिनीम् शशिशता नन्दाननां कारणम्
मातः श्रीकुलकुण्डली प्रियकले काली कलोद्दीपने !
तत्स्थानं प्रणमामि भद्रवनिते ! मामुद्धर त्वं पथे II8II
कुण्डलीशक्तिमार्गस्थं स्तोत्राष्टकमहाफ़लम्
यः पठेत् प्रातरुत्थाय स योगी भवति धृवम्
क्षणादेव हि पाठेन कविनाथो भवेदिह
पवित्रौ कुण्डली योगी ब्रह्मलीनो भवेन्महान्
इति ते कथितं नाथ ! कुण्डलीकोमलं स्तवम्
एतत् स्तोत्र प्रसादेन देवेषु गुरुगीष्पतिः
सर्वे देवाः सिद्धियुता अस्याः स्तोत्रप्रसादतः
द्विपरार्धं चिरञ्जीवी ब्रह्मा सर्वसुरेश्वरः
इति श्री आदि शक्ती भैरवी विरचितम्
श्री कुण्डलिनी स्तुति स्तोत्रम् संपूर्णम् ॥ॐ ॥
( रुद्रयामल षष्ठ पटलः )
11….
ॐ नमस्ते भैरवाय ब्रह्मविष्णु शिवात्मने । नमस्त्रैलोक्य वन्द्याय वरदाय वरात्मने ।।
रत्नसिंहासनस्थाय दिव्याभरण शोभिने । दिव्यमाल्य विभूषाय नमस्ते दिव्यमूर्तये ।।
नमस्तेअनेकहस्ताय अनेक शिरसे नमः । नमस्तेअनेकनेत्राय अनेक विभवे नमः ।।
नमस्तेअनेक कण्ठाय अनेकांशाय ते नमः । नमस्तेअनेक पार्श्वाय नमस्ते दिव्य तेजसे ।।
अनेकायुधयुक्ताय अनेक सुर सेविने । अनेकगुण युक्ताय महादेवाय ते नमः ।।
नमो दारिद्रयकालाय महासम्पद प्रदायिने । श्री भैरवी सयुंक्ताय त्रिलोकेशाय ते नमः ।।
दिगम्बर नमस्तुभ्यं दिव्यांगाय नमो नमः । नमोअस्तु दैत्यकालाय पापकालाय ते नमः ।।
सर्वज्ञाय नमस्तुभ्यं नमस्ते दिव्य चक्षुषे । अजिताय नमस्तुभ्यं जितामित्राय ते नमः ।।
नमस्ते रुद्ररूपाय महावीराय ते नमः । नामोअस्तवनन्तवीर्याय महाघोराय ते नमः ।।
नमस्ते घोर घोराय विश्वघोराय ते नमः । नमः उग्रायशान्ताय भक्तानांशान्तिदायिने ।।
गुरवे सर्वलोकानां नमः प्रणवरुपिणे । नमस्ते वाग्भवाख्याय दीर्घकामाय ते नमः ।।
नमस्ते कामराजाययोषित कामाय ते नमः । दीर्घमायास्वरुपाय महामाया ते नमः ।।
सृष्टिमाया स्वरूपाय विसर्गसमयाय ते । सुरलोक सुपूज्याय आपदुद्धारणाय च ।।
नमो नमो भैरवाय महादारिद्रय नाशिने । उन्मूलने कर्मठाय अलक्ष्म्याः सर्वदा नमः ।।
नमो अजामिलबद्धाय नमो लोकेश्वराय ते । स्वर्णाकर्षणशीलाय भैरवाय नमो नमः ।।
ममदारिद्रय विद्वेषणाय लक्ष्याय ते नमः । नमो लोकत्रयेशाय स्वानन्द निहिताय ते ।।
नमः श्रीबीजरुपाय सर्वकाम प्रदायिने । नमो महाभैरवाय श्रीभैरव नमो नमः ।।
धनाध्यक्ष नमस्तुभ्यं शरण्याय नमो नमः । नमः प्रसंनरुपाय सुवर्णाय नमो नमः ।।
नमस्ते मंत्ररुपाय नमस्ते मंत्ररुपिणे । नमस्ते स्वर्णरूपाय सुवर्णाय नमो नमः ।।
नमः सुवर्णवर्णाय महापुण्याय ते नमः । नमः शुद्धाय बुद्धाय नमः संसार तारिणे ।।
नमो देवाय गुह्माय प्रचलाय नमो नमः । नमस्ते बालरुपाय परेशां बलनाशिने ।।
नमस्ते स्वर्ण संस्थाय नमो भूतलवासिने । नमः पातालवासाय अनाधाराय ते नमः ।।
नमो नमस्ते शान्ताय अनन्ताय नमो नमः । द्विभुजाय नमस्तुभ्यं भुजत्रयसुशोभिने ।।
नमोअनमादी सिद्धाय स्वर्णहस्ताय ते नमः । पूर्णचन्द्र प्रतीकाशवदनाम्भोज शोभिने ।।
मनस्तेअस्तु स्वरूपाय स्वर्णालंकार शोभिने । नमः स्वर्णाकर्षणाय स्वर्णाभाय नमो नमः ।।
नमस्ते स्वर्णकण्ठाय स्वर्णाभाम्बर धारिणे । स्वर्णसिंहासनस्थाय स्वर्णपादाय ते नमः ।।
नमः स्वर्णाभपादय स्वर्णकाञ्ची सुशोभिने । नमस्ते स्वर्णजन्घाय भक्तकामदुधात्मने ।।
नमस्ते स्वर्णभक्ताय कल्पवृक्ष स्वरूपिणे । चिंतामणि स्वरूपाय नमो ब्रह्मादी सेविने ।।
कल्पद्रुमाद्यः संस्थाय बहुस्वर्ण प्रदायिने । नमो हेमाकर्षणाय भैरवाय नमो नमः ।।
स्तवेनान संतुष्टो भव लोकेश भैरव । पश्यमाम करुणादृष्टाय शरणागतवत्सल ।।
फलश्रुतिः
श्री महाभैरवस्येदं स्तोत्रमुक्तं सुदुर्लभम । मन्त्रात्मकं महापुण्यं सर्वैश्वर्यप्रदायकम ।।
यः पठेन्नित्यमेकाग्रं पातकैः स प्रमुच्यते । लभते महतीं लक्ष्मीमष्टएश्वर्यमवाप्नुयात ।।
चिंतामणिमवाप्नोति धेनुं कल्पतरुं ध्रुवम । स्वर्णराशिं वाप्नोति शीघ्रमेव स मानवः ।।
त्रिसंध्यं यः पठेत स्तोत्रं दशावृत्या नरोत्तमः । स्वप्ने श्रीभैरवस्तस्य साक्षाद भूत्वा जगदगुरुः ।।
स्वर्णाराशिं ददात्यस्मै तत्क्षणं नास्ति संशयः । अष्टावृत्या पठेत यस्तु संध्यायां वा नरोत्तमः ।।
सर्वदा यः पठेत स्तोत्रं भैरवश्य महात्मनः ।।
लोकत्रयं वाशिकुर्यादचलां श्रियमाप्नुयात । न भयं विद्यते नवापि विषभूतादी सम्भवम ।।
अष्ट पञ्चाशद वर्णाढयो मन्त्रराजः प्रकीर्तितः । दारिद्रय दुःख शमनः स्वर्णाकर्षण कारकः ।।
य एन सन्जपेद धीमान स्तोत्रं वा प्रयठेत सदा । महाभैरव सायुज्यं सो अन्तकाले लभेद ध्रुवम ।।
स्वर्णाकर्षण मंत्र
ॐ ऐं ह्रीं श्रीं आपदुध्दरणाय ह्रां ह्रीं ह्रूं अजामिलबध्दाय लोकेश्वराय स्वार्णाकर्षणभैरवाय ममदारिद्रय विद्वेषणाय महाभैरवाय नमः श्रीं ह्रीं ऐं ।
यह श्री स्वर्ण भैरव तंत्र है, इस त्रान्त्रिक क्रिया के द्वारा स्वयं श्री भैरव स्वप्न में आकर आपका मार्ग प्रदर्शन करते है । एवं दरिद्रता नाश कर लक्ष्मी प्रदान करते है ।
9….पाशुपतास्त्र स्तोत्रम
इस पाशुपत स्तोत्र का मात्र एक बार जप करने पर ही मनुष्य समस्त विघ्नों का नाश कर सकता है । सौ बार जप करने पर समस्त उत्पातो को नष्ट कर सकता है तथा युद्ध आदि में विजय प्राप्त के सकता है । इस मंत्र का घी और गुग्गल से हवं करने से मनुष्य असाध्य कार्यो को पूर्ण कर सकता है । इस पाशुपातास्त्र मंत्र के पाठ मात्र से समस्त क्लेशो की शांति हो जाती है ।
स्तोत्रम
ॐ नमो भगवते महापाशुपतायातुलबलवीर्यपराक्रमाय त्रिपन्चनयनाय नानारुपाय नानाप्रहरणोद्यताय सर्वांगडरक्ताय भिन्नांजनचयप्रख्याय श्मशान वेतालप्रियाय सर्वविघ्ननिकृन्तन रताय सर्वसिध्दिप्रदाय भक्तानुकम्पिने असंख्यवक्त्रभुजपादाय तस्मिन् सिध्दाय वेतालवित्रासिने शाकिनीक्षोभ जनकाय व्याधिनिग्रहकारिणे पापभन्जनाय सूर्यसोमाग्नित्राय विष्णु कवचाय खडगवज्रहस्ताय यमदण्डवरुणपाशाय रूद्रशूलाय ज्वलज्जिह्राय सर्वरोगविद्रावणाय ग्रहनिग्रहकारिणे दुष्टनागक्षय कारिणे ।
ॐ कृष्णपिंग्डलाय फट । हूंकारास्त्राय फट । वज्र हस्ताय फट । शक्तये फट । दण्डाय फट । यमाय फट । खडगाय फट । नैऋताय फट । वरुणाय फट । वज्राय फट । पाशाय फट । ध्वजाय फट । अंकुशाय फट । गदायै फट । कुबेराय फट । त्रिशूलाय फट । मुदगराय फट । चक्राय फट । पद्माय फट । नागास्त्राय फट । ईशानाय फट । खेटकास्त्राय फट । मुण्डाय फट । मुण्डास्त्राय फट । काड्कालास्त्राय फट । पिच्छिकास्त्राय फट । क्षुरिकास्त्राय फट । ब्रह्मास्त्राय फट । शक्त्यस्त्राय फट । गणास्त्राय फट । सिध्दास्त्राय फट । पिलिपिच्छास्त्राय फट । गंधर्वास्त्राय फट । पूर्वास्त्रायै फट । दक्षिणास्त्राय फट । वामास्त्राय फट । पश्चिमास्त्राय फट । मंत्रास्त्राय फट । शाकिन्यास्त्राय फट । योगिन्यस्त्राय फट । दण्डास्त्राय फट । महादण्डास्त्राय फट । नमोअस्त्राय फट । शिवास्त्राय फट । ईशानास्त्राय फट । पुरुषास्त्राय फट । अघोरास्त्राय फट । सद्योजातास्त्राय फट । हृदयास्त्राय फट । महास्त्राय फट । गरुडास्त्राय फट । राक्षसास्त्राय फट । दानवास्त्राय फट । क्षौ नरसिन्हास्त्राय फट । त्वष्ट्रास्त्राय फट । सर्वास्त्राय फट । नः फट । वः फट । पः फट । फः फट । मः फट । श्रीः फट । पेः फट । भूः फट । भुवः फट । स्वः फट । महः फट । जनः फट । तपः फट । सत्यं फट । सर्वलोक फट । सर्वपाताल फट । सर्वतत्व फट । सर्वप्राण फट । सर्वनाड़ी फट । सर्वकारण फट । सर्वदेव फट । ह्रीं फट । श्रीं फट । डूं फट । स्त्रुं फट । स्वां फट । लां फट । वैराग्याय फट । मायास्त्राय फट । कामास्त्राय फट । क्षेत्रपालास्त्राय फट । हुंकरास्त्राय फट । भास्करास्त्राय फट । चंद्रास्त्राय फट । विघ्नेश्वरास्त्राय फट । गौः गां फट । स्त्रों स्त्रौं फट । हौं हों फट । भ्रामय भ्रामय फट । संतापय संतापय फट । छादय छादय फट । उन्मूलय उन्मूलय फट । त्रासय त्रासय फट । संजीवय संजीवय फट । विद्रावय विद्रावय फट । सर्वदुरितं नाशय नाशय फट ।
आर्थिक विघ्नों के निवारण हेतु पशुपतिनाथ मंत्र.
” ॐ श्रीं पशु हुं फट् ।
10….|| श्री कुण्डलिनी स्तुति स्तोत्र ||
ॐ जन्मोद्धारनिरीक्षणीहतरुणी वेदादिबीजादिमां
नित्यं चेतसि भाव्यते भुवि कदा सद्वाक्य सञ्चारिणी
मां पातु प्रियदासभावकपदं सङ्घातये श्रीधरे !
धात्रि ! त्वं स्वयमादिदेववनिता दीनातिदिनं पशुम् II1II
रक्ताभामृतचन्द्रिका लिपिमयी सर्पाकृतिनिर्द्रिता
जाग्रत्कूर्मसमाश्रिता भगवती त्वं मां समालोकय
मांसो मांसोद्गन्धकुगन्धदोषजडितं वेदादि कार्यान्वितम्
स्वल्पास्वामलचन्द्र कोटिकिरणै-नित्यं शरीरम् कुरु II2II
सिद्धार्थी निजदोष वित्स्थलगतिर्व्याजीयते विद्यया
कुण्डल्याकुलमार्गमुक्तनगरी माया कुमार्गःश्रिया
यद्येवम् भजति प्रभातसमये मध्यान्हकालेSथवा
नित्यम् यः कुलकुण्डलीजपपदाम्भोजं स सिद्धो भवेत् II3II
वाय्वाकाशचतुर्दलेSतिविमले वाञ्छोफ़लोन्मूलके
नित्यम् सम्प्रति नित्त्यदेहघटिता साङ्केतिता भाविता
विद्या कुण्डलमानिनी स्वजननी माया क्रिया भाव्यते
यैस्तैः सिद्धकुलोद्भवैः प्रणतिभिः सत्स्तोत्रकैः शम्शुभिः II4II
वाताशन्कविमोहिनीति बलवच्छायापटोद्गामिनी
संसारादी महासुख प्रहरिणी ! तत्र स्थिता योगिनी
सर्वग्रन्थिविभेदिनी स्वभुजगा सूक्ष्मातिसूक्ष्मा परा
ब्रह्मज्ञानविनोदिनी कुलकुटीराघातनी भाव्यते II5II
वन्दे श्रीकुलकुण्डलीं त्रिवलिभिः साङ्गैः स्वयंभूप्रियां
प्रावेष्ट्याम्बर चित्तमध्यचपला बालाबलानिष्कलां
या देवी परिभाति वेदवदना सम्भावनी तापिनी
इष्टानाम् शिरसि स्वयम्भुवनिता सम्भावयामि क्रियाम् II6II
वाणी कोटि मृदङ्गनाद मदना- निश्रेणिकोटिध्वनिः
प्राणेशी प्रियताममूलकमनोल्लासैकपूर्णानना
आषाढोद्भवमेघराजिजनित ध्वान्ताननास्थायिनी
माता सा परिपातु सूक्ष्मपथगे ! मां योगिनां शङ्करी II7II
त्वामाश्रित्त्य नरा व्रजन्ति सहसा वैकुण्ठकैलासयोः
आनंदैक विलासिनीम् शशिशता नन्दाननां कारणम्
मातः श्रीकुलकुण्डली प्रियकले काली कलोद्दीपने !
तत्स्थानं प्रणमामि भद्रवनिते ! मामुद्धर त्वं पथे II8II
कुण्डलीशक्तिमार्गस्थं स्तोत्राष्टकमहाफ़लम्
यः पठेत् प्रातरुत्थाय स योगी भवति धृवम्
क्षणादेव हि पाठेन कविनाथो भवेदिह
पवित्रौ कुण्डली योगी ब्रह्मलीनो भवेन्महान्
इति ते कथितं नाथ ! कुण्डलीकोमलं स्तवम्
एतत् स्तोत्र प्रसादेन देवेषु गुरुगीष्पतिः
सर्वे देवाः सिद्धियुता अस्याः स्तोत्रप्रसादतः
द्विपरार्धं चिरञ्जीवी ब्रह्मा सर्वसुरेश्वरः
इति श्री आदि शक्ती भैरवी विरचितम्
श्री कुण्डलिनी स्तुति स्तोत्रम् संपूर्णम् ॥ॐ ॥
( रुद्रयामल षष्ठ पटलः )
11….
.अथ श्रीत्रिपुरसुन्दरी सुप्रभातम्
श्रीसेव्य-पादकमले श्रित-चन्द्र-मौले
श्रीचन्द्रशेखर-यतीश्वर-पूज्यमाने।
श्रीखण्ड-कन्दुककृत-स्व-शिरोवतंसे
श्रीमन्महात्रिपुरसुन्दरि सुप्रभातम् ॥१॥
उत्तिष्ठ तुङ्ग-कुलपर्वत-राज-कन्ये
उत्तिष्ठ भक्त-जन-दुःख-विनाश-दक्षे ।
उत्तिष्ठ सर्व-जगती-जननि प्रसन्ने
उत्तिष्ठ हे त्रिपुरसुन्दरि सुप्रभातम् ॥२॥
उत्तिष्ठ राजत-गिरि-द्विषतो रथात् त्वं
उत्तिष्ठ रत्न-खचितत् ज्वलिताच्च पीठात्।
उत्तिष्ठ बन्धन-सुखं परिधूय शंभोः उत्तिष्ठ
विघ्नित-तिरस्करिणीं विपाट्य ॥३॥
यत्पृष्ठभागमवलम्ब्य विभाति लक्ष्मीः
यस्या वसन्ति निखिला अमराश्च देहे ।
स्नात्वा विशुद्धहृदया कपिला सवत्सा
सिद्धा प्रदर्शयितुमिह नस्तव विश्वरूपम् ॥४॥
आकर्ण्यतेऽद्य मदमत्त-गजेन्द्रनादः
त्वं बोध्यसे प्रतिदिनं मधुरेण येन ।
भूपालरागमुखरा मुखवाद्यवीणा
भेरीध्वनिश्च कुरुते भवतीं प्रबुद्धाम् ॥५॥
त्वां सेवितुं विविध-रत्न-सुवर्ण-रूप्य-
खाद्यम्बरैः कुसुम-पत्र-फलैश्च भक्ताः ।
श्रद्धान्विताः जननि विस्मृत-गृह्य-बन्धाः
आयान्ति भारत-निवासि-जनाः सवेगम् ॥६॥
जीवातवः सुकृतिनः श्रुतिरूपमातुः
विप्राः प्रसन्न-मनसो जपितार्क-मन्त्राः ।
श्रीसूक्त-रुद्र-चमकाद्यवधारणाय
सिद्धाः महेश-दयिते तव सुप्रभातम् ॥७॥
फालप्रकासि-तिलकाङ्क-सुवासिनीनां
कर्पूर-भद्र-शिखया तव दृष्टि-दोषम् ।
गोष्ठी विभाति परिहर्तुमनन्यभावा
हे देवि पङ्क्तिश इयं तव सुप्रभातम् ॥८॥
उग्रः सहस्र-किरणोऽपि करं समर्प्य
त्वत्तेजसः पुरत एष विलज्जितः सन् ।
रक्तस्तनावुदयमेत्यगपृष्ठलीनः
पद्मं त्वदास्यसहजं कुरुते प्रसन्नम् ॥९॥
नृत्यन्ति बर्हनिवहं शिखिनः प्रसार्य
गायन्ति पञ्चमगतेन पिकाः स्वरेण।
आस्ते तरङ्गतति-वाद्य-मृदङ्ग-नादः
तौर्यत्रिकं शुभमकृत्रिममस्तु तुभ्यम् ॥१०॥
संताप-पाप-हरणे त्वयि दीक्षितायां
संताप-हारि-शशि-पापहरापगाभ्याम् ।
कुत्रापि धूर्जटि-जटा-विपिने निलीनं
छिन्ना सरित् क्षयमुपैति विधुश्च वक्रः ॥११॥
भुक्त्वा कुचेल-पृतुकं ननु गोपबालः
आकर्ण्य ते व्यरचयत् सुहृदं कुबेरम् ।
व्याजस्य नास्ति तव रिक्त-जनादपेक्षा
निर्व्याजमेव करुणां नमते तनोषि ॥१२॥
प्राप्नोति वृद्धिमतुलां पुरुषः कटाक्षैः द्वन्द्वी
ध्रुवं क्षयमुपैति न चात्र शङ्का।
मित्रस्तवोषसि पदं परिसेव्य वृद्धः
चन्द्रस्त्वदीय-मुखशत्रुतया विनष्टः ॥१३॥
सृष्टि-स्थिति-प्रलय-साक्षिणि विश्व-मातः
स्वर्गापवर्ग-फल-दायनि शंभु-कान्ते ।
श्रुत्यन्तखेलिनि विपक्ष-कठोर-वज्रे
भद्रे प्रसन्न-हृदये तव सुप्रभातम् ॥१४॥
मातः स्वरूपमनिशं हृदि पश्यतां ते
को वा न सिद्ध्यति मनश्चिर-कांक्षितार्थः ।
सिद्ध्यन्ति हन्त धरणी-धन-धान्य-धाम-
धी-धेनु-धैर्य-धृतयः सकलाः पुमार्थाः ॥१५॥
इति श्रीत्रिपुरसुन्दरी सुप्रभातम्
श्रीसेव्य-पादकमले श्रित-चन्द्र-मौले
श्रीचन्द्रशेखर-यतीश्वर-पूज्यमाने।
श्रीखण्ड-कन्दुककृत-स्व-शिरोवतंसे
श्रीमन्महात्रिपुरसुन्दरि सुप्रभातम् ॥१॥
उत्तिष्ठ तुङ्ग-कुलपर्वत-राज-कन्ये
उत्तिष्ठ भक्त-जन-दुःख-विनाश-दक्षे ।
उत्तिष्ठ सर्व-जगती-जननि प्रसन्ने
उत्तिष्ठ हे त्रिपुरसुन्दरि सुप्रभातम् ॥२॥
उत्तिष्ठ राजत-गिरि-द्विषतो रथात् त्वं
उत्तिष्ठ रत्न-खचितत् ज्वलिताच्च पीठात्।
उत्तिष्ठ बन्धन-सुखं परिधूय शंभोः उत्तिष्ठ
विघ्नित-तिरस्करिणीं विपाट्य ॥३॥
यत्पृष्ठभागमवलम्ब्य विभाति लक्ष्मीः
यस्या वसन्ति निखिला अमराश्च देहे ।
स्नात्वा विशुद्धहृदया कपिला सवत्सा
सिद्धा प्रदर्शयितुमिह नस्तव विश्वरूपम् ॥४॥
आकर्ण्यतेऽद्य मदमत्त-गजेन्द्रनादः
त्वं बोध्यसे प्रतिदिनं मधुरेण येन ।
भूपालरागमुखरा मुखवाद्यवीणा
भेरीध्वनिश्च कुरुते भवतीं प्रबुद्धाम् ॥५॥
त्वां सेवितुं विविध-रत्न-सुवर्ण-रूप्य-
खाद्यम्बरैः कुसुम-पत्र-फलैश्च भक्ताः ।
श्रद्धान्विताः जननि विस्मृत-गृह्य-बन्धाः
आयान्ति भारत-निवासि-जनाः सवेगम् ॥६॥
जीवातवः सुकृतिनः श्रुतिरूपमातुः
विप्राः प्रसन्न-मनसो जपितार्क-मन्त्राः ।
श्रीसूक्त-रुद्र-चमकाद्यवधारणाय
सिद्धाः महेश-दयिते तव सुप्रभातम् ॥७॥
फालप्रकासि-तिलकाङ्क-सुवासिनीनां
कर्पूर-भद्र-शिखया तव दृष्टि-दोषम् ।
गोष्ठी विभाति परिहर्तुमनन्यभावा
हे देवि पङ्क्तिश इयं तव सुप्रभातम् ॥८॥
उग्रः सहस्र-किरणोऽपि करं समर्प्य
त्वत्तेजसः पुरत एष विलज्जितः सन् ।
रक्तस्तनावुदयमेत्यगपृष्ठलीनः
पद्मं त्वदास्यसहजं कुरुते प्रसन्नम् ॥९॥
नृत्यन्ति बर्हनिवहं शिखिनः प्रसार्य
गायन्ति पञ्चमगतेन पिकाः स्वरेण।
आस्ते तरङ्गतति-वाद्य-मृदङ्ग-नादः
तौर्यत्रिकं शुभमकृत्रिममस्तु तुभ्यम् ॥१०॥
संताप-पाप-हरणे त्वयि दीक्षितायां
संताप-हारि-शशि-पापहरापगाभ्याम् ।
कुत्रापि धूर्जटि-जटा-विपिने निलीनं
छिन्ना सरित् क्षयमुपैति विधुश्च वक्रः ॥११॥
भुक्त्वा कुचेल-पृतुकं ननु गोपबालः
आकर्ण्य ते व्यरचयत् सुहृदं कुबेरम् ।
व्याजस्य नास्ति तव रिक्त-जनादपेक्षा
निर्व्याजमेव करुणां नमते तनोषि ॥१२॥
प्राप्नोति वृद्धिमतुलां पुरुषः कटाक्षैः द्वन्द्वी
ध्रुवं क्षयमुपैति न चात्र शङ्का।
मित्रस्तवोषसि पदं परिसेव्य वृद्धः
चन्द्रस्त्वदीय-मुखशत्रुतया विनष्टः ॥१३॥
सृष्टि-स्थिति-प्रलय-साक्षिणि विश्व-मातः
स्वर्गापवर्ग-फल-दायनि शंभु-कान्ते ।
श्रुत्यन्तखेलिनि विपक्ष-कठोर-वज्रे
भद्रे प्रसन्न-हृदये तव सुप्रभातम् ॥१४॥
मातः स्वरूपमनिशं हृदि पश्यतां ते
को वा न सिद्ध्यति मनश्चिर-कांक्षितार्थः ।
सिद्ध्यन्ति हन्त धरणी-धन-धान्य-धाम-
धी-धेनु-धैर्य-धृतयः सकलाः पुमार्थाः ॥१५॥
इति श्रीत्रिपुरसुन्दरी सुप्रभातम्
12….।। नारायण ह्रदयम ।।
लक्ष्मीनारायण की प्रसन्नता के लिए लक्ष्मीह्रदय के साथ इसका पाठ करने से धनधान्य एश्वर्य की वृद्धि होती है । अगर आप लक्ष्मी ह्रदय का पाठ करने में असमर्थ है तो लक्ष्मी मंत्र के साथ भी इसका पाठ किया जा सकता है ।
ध्यानम
” उद्यदादित्यसंकाशं पीतवास समच्युतम । शंखचक्रगदापाणिम ध्यायेल्लक्ष्मीपतिं हरिम ।। ”
” ॐ नमो नारायणाय ” फिर ध्यानम के बाद इस मंत्र का १०८ बार जप करके स्तोत्र का पाठ करें ।
स्तोत्रम
ॐ नारायणः परं ज्योतिरात्मा नारायणः परः । नारायणः परमब्रह्म नारायण नमोस्तुते ।।
नारायणः परोदेव दाता नारायणः परः । नारायणः परो ध्याता नारायण नमोस्तुते ।।
नारायणः परंधाम ध्यानं नारायणः परः । नारायणः परो धर्म्मो नारायण नमोस्तुते ।।
नारायणः परो वेद्यो विद्या नारायणः परः । विश्वं नारायणः साक्षान्नारायण नमोस्तुते ।।
नारायणद्विधिजार्तो जातो नारायणाच्छिवः । जातो नारायणादिन्द्रो नारायण नमोस्तुते ।।
रविर्नारायणं तेजश्चान्द्रम नारायणं महः । वह्रिर्नारायणः साक्षान्नारायण नमोस्तुते ।।
नारायण उपास्यः स्यादगुरुर्नारायणः परः । नारायणः परोबोधो नारायण नमोस्तुते ।।
नारायणः फलं मुख्यं सिध्दिर्नारायणः सुखम। सेव्यो नारायणः सुध्दो नारायण नमोस्तुते ।।
.
13….
भगवान दत्तात्रेय
भगवान शंकर का साक्षात रूप महाराज दत्तात्रेय को माना जाता है, और तीनो ईश्वरीय शक्तियों से समाहित महाराज दत्तात्रेय की आराधना बहुत ही सफ़ल और जल्दी से फ़ल देने वाली है। महाराज दत्तात्रेय आजन्म ब्रह्मचारी,अवधूत,और दिगम्बर रहे थे। वे सर्वव्यापी है,और किसी प्रकार के संकट में बहुत जल्दी से भक्त की सुध लेने वाले है। अगर मानसिक,या कर्म से या वाणी से महाराज दत्तात्रेय की उपासना की जाये तो भक्त किसी भी कठिनाई से बहुत जल्दी दूर हो जाते है।
भगवान दत्तात्रेय की जयंती मार्गशीर्ष माह में मनाई जाती है। दत्तात्रेय में ईश्वर और गुरु दोनों रूप समाहित हैं इसीलिए उन्हें “परब्रह्ममूर्ति सद्गुरु”और “श्रीगुरुदेवदत्त”भी कहा जाता हैं। उन्हें गुरु वंश का प्रथम गुरु, साथक, योगी और वैज्ञानिक माना जाता है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार दत्तात्रेय ने पारद से व्योमयान उड्डयन की शक्ति का पता लगाया था और चिकित्सा शास्त्र में क्रांतिकारी अन्वेषण किया था।
हिंदू धर्म के त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रचलित विचारधारा के विलय के लिए ही भगवान दत्तात्रेय ने जन्म लिया था, इसीलिए उन्हें त्रिदेव का स्वरूप भी कहा जाता है। दत्तात्रेय को शैवपंथी शिव का अवतार और वैष्णवपंथी विष्णु का अंशावतार मानते हैं। दत्तात्रेय को नाथ संप्रदाय की नवनाथ परंपरा का भी अग्रज माना है। यह भी मान्यता है कि रसेश्वर संप्रदाय के प्रवर्तक भी दत्तात्रेय थे। भगवान दत्तात्रेय से वेद और तंत्र मार्ग का विलय कर एक ही संप्रदाय निर्मित किया था।
दत्तमूर्ति के साथ सदैव एक गाय तथा इनके आगे चार कुत्ते दिखाई देते हैं। पुराणों के अनुसार भगवान दत्तात्रेय ने पृथ्वी और चार वेदों की सुरक्षा के लिए अवतार लिया था, जिसमें गाय पृथ्वी तथा चार कुत्ते चार वेद के स्वरूप प्रतीत होते हैं। वहीं यह धारणा भी है कि गूलर के वृक्ष में भगवान दत्त का वास होता है, इसलिए प्रत्येक मंदिर में गूलर वृक्ष नजर आता है।
कार्तवीर्य अर्जुन द्वारा दत्तात्रेय उपासना
महाराज क्रतवीर्य ने पुत्र कार्तवीर्य के शरीर के उपचार के लिये भगवान दतात्रेय की सेवा अर्चना की और उनसे पुत्र के स्वस्थ व सुंदर शरीर की कामना की थी I तब भगवान दतात्रेय ने एकाक्षरी मंत्र का जप और श्री गणेश जी की आराधना बारह वर्ष तक करने का उपदेश दिया था I परिणाम स्वरुप श्री गणेश जी की कृपा से कार्तवीर्य को सुंदर शरीर और सहस्त्रबाहु प्राप्त हुए थे I
महाराज क्रतवीर्य के निधन के पश्चात् उत्तराधिकारी कार्तवीर्य अर्जुन से राज्यशासन ग्रहण करने के लिये आमात्य एवं प्रजाजनों ने निवेदन किया और राज्याभिषेक के लिये तत्पर हुए I किंतु कार्तवीर्य ने उनका यह निवेदन यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया की “अग्निहोत्र” (यज्ञ) ताप, वेद पाठन, अतिथि सत्कार, वैश्वदेव व सत्य ये सब इष्ट हैं I कूप, सरोवर बनवाना, उपयुक्त पात्र को दान देना आदि पूर्त हैं I प्रजा से कर लेकर उनके सत्यपालन में यदि समर्थ न हुआ और दूसरों से प्रजा पालन कराता रहा तो मेरी सब इच्छा पूर्ति नष्ट हो जावेगी I इनके नष्ट होने से मुझे निश्चय ही नरक की प्राप्ति होगी I अतः मुझे प्रजापालन में पूर्णरूप से प्रथम सक्षम होना चाहिए तभी मैं राज्यशासन ग्रहण करूँगा इससे पूर्व नहीं I
कार्तवीर्य अर्जुन का यह निश्चय सुनकर गर्ग मुनि ने कहा – वास्तव में आप यदि राजा का ऐसा आचरण करना चाहते हो जैसा कि आपने कहा है तो आप सह्यादी की गुफाओं में जाकर भगवान दतात्रेय की सेवा कर उनसे उपदेश ग्रहण करें I वे देवताओं के द्वारा उपासित हैं I उन्होंने स्वर्ग का राज्य वापस कराने में इन्द्र सहित देवताओं की सहायता की थी I यह सुनकर कार्तवीर्य अर्जुन ने प्रश्न किया कि भगवान दतात्रेय ने किस प्रकार देवताओं की उपासना प्राप्त की और किस प्रकार राजा इन्द्र को उनका राज्य वापस करवाया I
गर्ग मुनि ने उस वृतांत को कार्तवीर्य को सुनाया – एक समय जम्भासुर दानवों के राजा ने देवताओं से भयंकर युद्ध छेड़ दिया I देवराज इन्द्र और उनके साथी देवताओं ने दानवों का सामना किया I किंतु उनकी पराजय हुई और वे इधर-उधर भाग गये I फलतः इन्द्र से उनका राज्य छीन गया I देवराज इन्द्र निराश होकर देवगुरु ब्रहस्पति के पास गये और उन्हें पूर्ण व्यथा-कथा सुनाई I इस पर देवगुरु ने कहा की यदि आप दानवों पर विजय चाहते हैं तो सिद्धराज दत्तात्रेय जी के पास जाकर उनसे अनुनय विनय करो I वे ही तुम्हारा कल्याण करेंगे I देवराज इन्द्र के साथ सभी देवगण दत्तात्रेय जी के पास पहुँचे और उन्होंने उनकी सेवा की I अंततः दत्तात्रेय जी ने द्रवित होकर देवताओं से आने का कारण पूछा I देवताओं ने अपनी कथा-व्यथा कह सुनाई I देवताओं की बात सुनकर भगवान दत्तात्रेय ने आदेश दिया की आप लोग जाकर दानवों को युद्ध के लिये ललकारें और उन्हें मेरे पास ले आएं I वे अपनी दृष्टि से दानवों को भस्म कर देंगे I देवताओं ने उनकी आज्ञा का पालन किया और दानवों ने भी उनका पीछा किया और दत्तात्रेय जी के आश्रम तक आ गये I वहाँ लक्ष्मी स्वरुप नारी को देखकर दानवगण युद्ध करना भूलकर उस नारी पर मोहित हो गये I उस लक्ष्मी स्वरुपा नारी को पालकी में बिठाकर, पालकी को सिर पर उठाकर चल पड़े I यह देखकर दत्तात्रेय जी ने कहा की हे देवगण विधाता आपके अनुकूल है I क्योंकि लक्ष्मी सप्तम स्थान का अतिक्रमण कर दानवों के सिर पर जा बैठी है जिससे दानवों का विनाश स्पष्ट है I दत्तात्रेय जी ने देवताओं को बतलाया की जब लक्ष्मी चरण में हो तो गृह्दात्री होती है I अस्थि में हो तो रत्न आदि देती है I गुह्य स्थान में हो तो स्त्री, अंक में हो तो पुत्र, ह्रदय में हो तो सर्व मनोरथ प्रदायनी होती है I कंठ में हो तो कंठ भूषण देती है, प्रवासी प्रिय जनों के समागम में सहायक होती है I वाणी में हो तो लावण्य कवित्व शक्ति और यश देती है और लक्ष्मी यदि सिर पर आसीन हो तो विनाश करती है I तो हे देवगण, अब दानवों का विनाश निश्चित है I अतः आप लोग अब उन पर सहज ही विजय प्राप्त कर सकते हैं I तब देवताओं ने दानवों पर आक्रमण करके उनका विनाश कर दिया और लक्ष्मी स्वरुप नारी को दत्तात्रेय जी के पास ले आये I देवताओं ने दत्तात्रेय जी का पूजन किया और उनकी जय-जयकार करते हुये चले गये I यह प्रसंग सुनाकर गर्ग ऋषि ने कहा कि हे राजकुमार यदि आप भी अपने अभिमत में सफल होना चाहते हैं तो भगवान दत्तात्रेय जी की सेवा में उपस्थित होइए I
ऋषि गर्ग का यह कथन सुनकर कार्तवीर्य अर्जुन भगवान दत्तात्रेय की सेवा में उपस्थित हुये और तन, मन, धन, अर्पित कर क्षत्रिय धर्म को रखते हुये विनय और शास्त्र ज्ञान के अनुसार दत्तचित होकर भक्तिभाव से उनकी पूजा अर्चना में लग गये I अत्रि पुत्र दत्त की दुष्कर आराधना और सेवावृत्ति को देखकर दत्तात्रेय जी प्रसन्न हुये और उन्होंने वरदान मांगने को कहा I तब कार्तवीर्य ने कहा कि हे भगवान मुझे उत्तम सिद्धि का वरदान दीजिये I मुझमें अणिमा- लाघिमादी सिद्धियों का समावेश हो (वह सिद्धि जिसके द्वारा योगी अतिसूक्ष्म रूप धारण कर सकता है, लघुभाव प्राप्त करना हाथ की सफाई आदि की सिद्धियाँ) मुझे ज्ञान शक्ति और पौरुष में कोई न जीत सके I मै दान दक्षिणा करने में तथा भगवान कि अविचल भक्ति में मनसा-वाचा-कर्मणा में रात रहूँ I मैं अपने पराक्रम से सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतकर स्वधर्म पालन द्वारा सत्य एवं सन्मार्ग का पालन करते हुये प्रजा को सुखी एवं प्रसन्न रखूं I मैं कभी सन्मार्ग का परित्याग करके यदि असत्य मार्ग का आश्रय लेकर अधर्म कार्य में प्रवत्त होऊं तो श्रेष्ट पुरुष मुझे सन्मार्ग पर लाने के लिये शिक्षा दें I मैं सहस्त्रबाहु बन जाऊं और सहस्त्रार्जुन कहलाऊं I युद्ध में मेरी सहस्त्रभुजाएँ हो जावें, किंतु घर पर मेरी दो ही भुजाएँ रहें और रण भूमि में सभी सैनिक मेरी एक हज़ार भुजाएँ देखें I संग्राम में हजारों शत्रुओं को मौत के घाट उतर कर संग्राम में ही लड़ते हुए जो मुझसे अधिक शक्तिशाली और श्रेष्ट पुरुष हो उसके हाथों मेरी म्रत्यु हो I पदमपुराण में कहा गया है कि कार्तवीर्य अर्जुन ने दत्तात्रेय जी से जो वरदान मांगे उनमे विशेषकर एक वरदान उल्लेखनीय यह भी था कि “मेरे राज्य में लोगों को अधर्म कि बात सोचते हुए भी मुझसे भय हो और वे अधर्म के मार्ग से हट जाए I ” इस वरदान के करण कार्तवीर्य अर्जुन के राज्य में यदि किसी भी मनुष्य ने अधर्म कि बात मन में सोचने का ध्यान करता तो उसी समय उसे राजा का भय हो जाता था I इससे राज्य में अमन चैन, सुख और शांति व्याप्त रहती थी और राजा का शासन सुचारू रूप से चलता रहता था I भगवान दत्तात्रेय को प्रश्न करने के लिये राजा ने “भद्रदीप प्रतिष्ठा यज्ञ” का धार्मिक आयोजन किया था I
ब्रह्माण्ड पुराण में बताया गया है कि जब कार्तवीर्य अर्जुन राजधानी महिष्मति में राज्य कर रहे थे तब एक समय देवर्षि नारद जी ने महिष्मति नगरी में आकर राजा को दर्शन दिये I राजा ने ह्रदय से यथोचित उनका स्वागत किया और उनसे मोक्ष और दृव्य आनंद का मार्ग बतलाने के लिये निवेदन किया I नारद जी ने तब महाराज सहस्त्रबाहु को ” भद्रदीप प्रतिष्ठा यज्ञ ” का धार्मिक आयोजन करने के लिये उपदेश दिया था I महाराज कार्तवीर्य ने अपनी महारानी के साथ नर्मदा तट पर विधिवत ” भद्रदीप प्रतिष्ठा यज्ञ ” का धार्मिक आयोजन किया I यज्ञ के समापन के पश्चात् राजा के गुरु भगवान दत्तात्रेय प्रसन्न हुये और राजा से वरदान मांगने के लिये कहा I राजा ने हाथ जोड़कर एक हज़ार हाथ हो जाने का वरदान माँगा I भगवान दत्तात्रेय ने कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान देते हुये “तथास्तु” कहते हुए कहा कि ऐसा ही होगा और यह भी कहा कि ” तुम चक्रवर्ती सम्राट बनोगे तथा जो व्यक्ति सायं और प्रातः काल ” नमोस्तु कार्तवीर्य ” इस वाक्य से तुम्हारा स्मरण करेंगे उन पुरषों का द्रव्य कभी नष्ट नहीं होगा I ” भगवान दत्तात्रेय से वर प्राप्त कर वे धर्म पूर्वक सप्तद्वीप प्रथ्वी का पालन करने लगे और शत्रुओं पर विजय प्राप्त की I उस तेजस्वी राजा के लिये वे सभी वरदान उसी रूप में सफल हुये I उसके पश्चात् कार्तवीर्य अर्जुन ने दत्तात्रेय जी को प्रणाम किया और उनसे विदा ली I
मार्कण्डेय पुराण में कार्तवीर्य को एक हज़ार वर्ष और हरिवंश पुराण में बारह हज़ार वर्ष दत्तात्रेय जी की उपासना करना बतलाया है I
14…
भगवान शंकर का साक्षात रूप महाराज दत्तात्रेय को माना जाता है, और तीनो ईश्वरीय शक्तियों से समाहित महाराज दत्तात्रेय की आराधना बहुत ही सफ़ल और जल्दी से फ़ल देने वाली है। महाराज दत्तात्रेय आजन्म ब्रह्मचारी,अवधूत,और दिगम्बर रहे थे। वे सर्वव्यापी है,और किसी प्रकार के संकट में बहुत जल्दी से भक्त की सुध लेने वाले है। अगर मानसिक,या कर्म से या वाणी से महाराज दत्तात्रेय की उपासना की जाये तो भक्त किसी भी कठिनाई से बहुत जल्दी दूर हो जाते है।
भगवान दत्तात्रेय की जयंती मार्गशीर्ष माह में मनाई जाती है। दत्तात्रेय में ईश्वर और गुरु दोनों रूप समाहित हैं इसीलिए उन्हें “परब्रह्ममूर्ति सद्गुरु”और “श्रीगुरुदेवदत्त”भी कहा जाता हैं। उन्हें गुरु वंश का प्रथम गुरु, साथक, योगी और वैज्ञानिक माना जाता है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार दत्तात्रेय ने पारद से व्योमयान उड्डयन की शक्ति का पता लगाया था और चिकित्सा शास्त्र में क्रांतिकारी अन्वेषण किया था।
हिंदू धर्म के त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रचलित विचारधारा के विलय के लिए ही भगवान दत्तात्रेय ने जन्म लिया था, इसीलिए उन्हें त्रिदेव का स्वरूप भी कहा जाता है। दत्तात्रेय को शैवपंथी शिव का अवतार और वैष्णवपंथी विष्णु का अंशावतार मानते हैं। दत्तात्रेय को नाथ संप्रदाय की नवनाथ परंपरा का भी अग्रज माना है। यह भी मान्यता है कि रसेश्वर संप्रदाय के प्रवर्तक भी दत्तात्रेय थे। भगवान दत्तात्रेय से वेद और तंत्र मार्ग का विलय कर एक ही संप्रदाय निर्मित किया था।
दत्तमूर्ति के साथ सदैव एक गाय तथा इनके आगे चार कुत्ते दिखाई देते हैं। पुराणों के अनुसार भगवान दत्तात्रेय ने पृथ्वी और चार वेदों की सुरक्षा के लिए अवतार लिया था, जिसमें गाय पृथ्वी तथा चार कुत्ते चार वेद के स्वरूप प्रतीत होते हैं। वहीं यह धारणा भी है कि गूलर के वृक्ष में भगवान दत्त का वास होता है, इसलिए प्रत्येक मंदिर में गूलर वृक्ष नजर आता है।
कार्तवीर्य अर्जुन द्वारा दत्तात्रेय उपासना
महाराज क्रतवीर्य ने पुत्र कार्तवीर्य के शरीर के उपचार के लिये भगवान दतात्रेय की सेवा अर्चना की और उनसे पुत्र के स्वस्थ व सुंदर शरीर की कामना की थी I तब भगवान दतात्रेय ने एकाक्षरी मंत्र का जप और श्री गणेश जी की आराधना बारह वर्ष तक करने का उपदेश दिया था I परिणाम स्वरुप श्री गणेश जी की कृपा से कार्तवीर्य को सुंदर शरीर और सहस्त्रबाहु प्राप्त हुए थे I
महाराज क्रतवीर्य के निधन के पश्चात् उत्तराधिकारी कार्तवीर्य अर्जुन से राज्यशासन ग्रहण करने के लिये आमात्य एवं प्रजाजनों ने निवेदन किया और राज्याभिषेक के लिये तत्पर हुए I किंतु कार्तवीर्य ने उनका यह निवेदन यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया की “अग्निहोत्र” (यज्ञ) ताप, वेद पाठन, अतिथि सत्कार, वैश्वदेव व सत्य ये सब इष्ट हैं I कूप, सरोवर बनवाना, उपयुक्त पात्र को दान देना आदि पूर्त हैं I प्रजा से कर लेकर उनके सत्यपालन में यदि समर्थ न हुआ और दूसरों से प्रजा पालन कराता रहा तो मेरी सब इच्छा पूर्ति नष्ट हो जावेगी I इनके नष्ट होने से मुझे निश्चय ही नरक की प्राप्ति होगी I अतः मुझे प्रजापालन में पूर्णरूप से प्रथम सक्षम होना चाहिए तभी मैं राज्यशासन ग्रहण करूँगा इससे पूर्व नहीं I
कार्तवीर्य अर्जुन का यह निश्चय सुनकर गर्ग मुनि ने कहा – वास्तव में आप यदि राजा का ऐसा आचरण करना चाहते हो जैसा कि आपने कहा है तो आप सह्यादी की गुफाओं में जाकर भगवान दतात्रेय की सेवा कर उनसे उपदेश ग्रहण करें I वे देवताओं के द्वारा उपासित हैं I उन्होंने स्वर्ग का राज्य वापस कराने में इन्द्र सहित देवताओं की सहायता की थी I यह सुनकर कार्तवीर्य अर्जुन ने प्रश्न किया कि भगवान दतात्रेय ने किस प्रकार देवताओं की उपासना प्राप्त की और किस प्रकार राजा इन्द्र को उनका राज्य वापस करवाया I
गर्ग मुनि ने उस वृतांत को कार्तवीर्य को सुनाया – एक समय जम्भासुर दानवों के राजा ने देवताओं से भयंकर युद्ध छेड़ दिया I देवराज इन्द्र और उनके साथी देवताओं ने दानवों का सामना किया I किंतु उनकी पराजय हुई और वे इधर-उधर भाग गये I फलतः इन्द्र से उनका राज्य छीन गया I देवराज इन्द्र निराश होकर देवगुरु ब्रहस्पति के पास गये और उन्हें पूर्ण व्यथा-कथा सुनाई I इस पर देवगुरु ने कहा की यदि आप दानवों पर विजय चाहते हैं तो सिद्धराज दत्तात्रेय जी के पास जाकर उनसे अनुनय विनय करो I वे ही तुम्हारा कल्याण करेंगे I देवराज इन्द्र के साथ सभी देवगण दत्तात्रेय जी के पास पहुँचे और उन्होंने उनकी सेवा की I अंततः दत्तात्रेय जी ने द्रवित होकर देवताओं से आने का कारण पूछा I देवताओं ने अपनी कथा-व्यथा कह सुनाई I देवताओं की बात सुनकर भगवान दत्तात्रेय ने आदेश दिया की आप लोग जाकर दानवों को युद्ध के लिये ललकारें और उन्हें मेरे पास ले आएं I वे अपनी दृष्टि से दानवों को भस्म कर देंगे I देवताओं ने उनकी आज्ञा का पालन किया और दानवों ने भी उनका पीछा किया और दत्तात्रेय जी के आश्रम तक आ गये I वहाँ लक्ष्मी स्वरुप नारी को देखकर दानवगण युद्ध करना भूलकर उस नारी पर मोहित हो गये I उस लक्ष्मी स्वरुपा नारी को पालकी में बिठाकर, पालकी को सिर पर उठाकर चल पड़े I यह देखकर दत्तात्रेय जी ने कहा की हे देवगण विधाता आपके अनुकूल है I क्योंकि लक्ष्मी सप्तम स्थान का अतिक्रमण कर दानवों के सिर पर जा बैठी है जिससे दानवों का विनाश स्पष्ट है I दत्तात्रेय जी ने देवताओं को बतलाया की जब लक्ष्मी चरण में हो तो गृह्दात्री होती है I अस्थि में हो तो रत्न आदि देती है I गुह्य स्थान में हो तो स्त्री, अंक में हो तो पुत्र, ह्रदय में हो तो सर्व मनोरथ प्रदायनी होती है I कंठ में हो तो कंठ भूषण देती है, प्रवासी प्रिय जनों के समागम में सहायक होती है I वाणी में हो तो लावण्य कवित्व शक्ति और यश देती है और लक्ष्मी यदि सिर पर आसीन हो तो विनाश करती है I तो हे देवगण, अब दानवों का विनाश निश्चित है I अतः आप लोग अब उन पर सहज ही विजय प्राप्त कर सकते हैं I तब देवताओं ने दानवों पर आक्रमण करके उनका विनाश कर दिया और लक्ष्मी स्वरुप नारी को दत्तात्रेय जी के पास ले आये I देवताओं ने दत्तात्रेय जी का पूजन किया और उनकी जय-जयकार करते हुये चले गये I यह प्रसंग सुनाकर गर्ग ऋषि ने कहा कि हे राजकुमार यदि आप भी अपने अभिमत में सफल होना चाहते हैं तो भगवान दत्तात्रेय जी की सेवा में उपस्थित होइए I
ऋषि गर्ग का यह कथन सुनकर कार्तवीर्य अर्जुन भगवान दत्तात्रेय की सेवा में उपस्थित हुये और तन, मन, धन, अर्पित कर क्षत्रिय धर्म को रखते हुये विनय और शास्त्र ज्ञान के अनुसार दत्तचित होकर भक्तिभाव से उनकी पूजा अर्चना में लग गये I अत्रि पुत्र दत्त की दुष्कर आराधना और सेवावृत्ति को देखकर दत्तात्रेय जी प्रसन्न हुये और उन्होंने वरदान मांगने को कहा I तब कार्तवीर्य ने कहा कि हे भगवान मुझे उत्तम सिद्धि का वरदान दीजिये I मुझमें अणिमा- लाघिमादी सिद्धियों का समावेश हो (वह सिद्धि जिसके द्वारा योगी अतिसूक्ष्म रूप धारण कर सकता है, लघुभाव प्राप्त करना हाथ की सफाई आदि की सिद्धियाँ) मुझे ज्ञान शक्ति और पौरुष में कोई न जीत सके I मै दान दक्षिणा करने में तथा भगवान कि अविचल भक्ति में मनसा-वाचा-कर्मणा में रात रहूँ I मैं अपने पराक्रम से सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतकर स्वधर्म पालन द्वारा सत्य एवं सन्मार्ग का पालन करते हुये प्रजा को सुखी एवं प्रसन्न रखूं I मैं कभी सन्मार्ग का परित्याग करके यदि असत्य मार्ग का आश्रय लेकर अधर्म कार्य में प्रवत्त होऊं तो श्रेष्ट पुरुष मुझे सन्मार्ग पर लाने के लिये शिक्षा दें I मैं सहस्त्रबाहु बन जाऊं और सहस्त्रार्जुन कहलाऊं I युद्ध में मेरी सहस्त्रभुजाएँ हो जावें, किंतु घर पर मेरी दो ही भुजाएँ रहें और रण भूमि में सभी सैनिक मेरी एक हज़ार भुजाएँ देखें I संग्राम में हजारों शत्रुओं को मौत के घाट उतर कर संग्राम में ही लड़ते हुए जो मुझसे अधिक शक्तिशाली और श्रेष्ट पुरुष हो उसके हाथों मेरी म्रत्यु हो I पदमपुराण में कहा गया है कि कार्तवीर्य अर्जुन ने दत्तात्रेय जी से जो वरदान मांगे उनमे विशेषकर एक वरदान उल्लेखनीय यह भी था कि “मेरे राज्य में लोगों को अधर्म कि बात सोचते हुए भी मुझसे भय हो और वे अधर्म के मार्ग से हट जाए I ” इस वरदान के करण कार्तवीर्य अर्जुन के राज्य में यदि किसी भी मनुष्य ने अधर्म कि बात मन में सोचने का ध्यान करता तो उसी समय उसे राजा का भय हो जाता था I इससे राज्य में अमन चैन, सुख और शांति व्याप्त रहती थी और राजा का शासन सुचारू रूप से चलता रहता था I भगवान दत्तात्रेय को प्रश्न करने के लिये राजा ने “भद्रदीप प्रतिष्ठा यज्ञ” का धार्मिक आयोजन किया था I
ब्रह्माण्ड पुराण में बताया गया है कि जब कार्तवीर्य अर्जुन राजधानी महिष्मति में राज्य कर रहे थे तब एक समय देवर्षि नारद जी ने महिष्मति नगरी में आकर राजा को दर्शन दिये I राजा ने ह्रदय से यथोचित उनका स्वागत किया और उनसे मोक्ष और दृव्य आनंद का मार्ग बतलाने के लिये निवेदन किया I नारद जी ने तब महाराज सहस्त्रबाहु को ” भद्रदीप प्रतिष्ठा यज्ञ ” का धार्मिक आयोजन करने के लिये उपदेश दिया था I महाराज कार्तवीर्य ने अपनी महारानी के साथ नर्मदा तट पर विधिवत ” भद्रदीप प्रतिष्ठा यज्ञ ” का धार्मिक आयोजन किया I यज्ञ के समापन के पश्चात् राजा के गुरु भगवान दत्तात्रेय प्रसन्न हुये और राजा से वरदान मांगने के लिये कहा I राजा ने हाथ जोड़कर एक हज़ार हाथ हो जाने का वरदान माँगा I भगवान दत्तात्रेय ने कार्तवीर्य अर्जुन को वरदान देते हुये “तथास्तु” कहते हुए कहा कि ऐसा ही होगा और यह भी कहा कि ” तुम चक्रवर्ती सम्राट बनोगे तथा जो व्यक्ति सायं और प्रातः काल ” नमोस्तु कार्तवीर्य ” इस वाक्य से तुम्हारा स्मरण करेंगे उन पुरषों का द्रव्य कभी नष्ट नहीं होगा I ” भगवान दत्तात्रेय से वर प्राप्त कर वे धर्म पूर्वक सप्तद्वीप प्रथ्वी का पालन करने लगे और शत्रुओं पर विजय प्राप्त की I उस तेजस्वी राजा के लिये वे सभी वरदान उसी रूप में सफल हुये I उसके पश्चात् कार्तवीर्य अर्जुन ने दत्तात्रेय जी को प्रणाम किया और उनसे विदा ली I
मार्कण्डेय पुराण में कार्तवीर्य को एक हज़ार वर्ष और हरिवंश पुराण में बारह हज़ार वर्ष दत्तात्रेय जी की उपासना करना बतलाया है I
14…
.|| श्रीदत्तात्रेयवज्रकवचम् ||
॥श्रीहरि:||
श्रीगणेशाय नम: ।
श्रीदत्तात्रेयाय नम: ।
ऋषय ऊचु: ।
कथं संकल्पसिद्धि: स्याद्वेदव्यास कलौ युगे ।
धर्मार्थकाममोक्षणां साधनं किमुदाह्रतम् ॥ १ ॥
व्यास उवाच ।
श्रृण्वन्तु ऋषय: सर्वे शीघ्रं संकल्पसाधनम् ।
सकृदुच्चारमात्रेण भोगमोक्षप्रदायकम् ॥ २ ॥
गौरीश्रृङ्गे हिमवत: कल्पवृक्षोपशोभितम् ।
दीप्ते दिव्यमहारत्नहेममण्डपमध्यगम् ॥ ३ ॥
रत्नसिंहासनासीनं प्रसन्नं परमेश्वरम् ।
मन्दस्मितमुखाम्भोजं शङ्करं प्राह पार्वती॥ ४ ॥
श्रीदेव्युवाच
देवदेव महादेव लोकशङ्कर शङ्कर ।
मन्त्रजालानि सर्वाणि यन्त्रजालानि कृत्स्नश: ॥ ५ ॥
तन्त्रजालान्यनेकानि मया त्वत्त: श्रुतानि वै ।
इदानीं द्रष्टुमिच्छामि विशेषेण महीतलम् ॥ ६ ॥
इत्युदीरितमाकर्ण्य पार्वत्या परमेश्वर: ।
करेणामृज्य संतोषात्पार्वतीं प्रत्यभाषत ॥ ७ ॥
मयेदानीं त्वया सार्धं वृषमारुह्य गम्यते ।
इत्युक्त्वा वृषमारुह्य पार्वत्या सह शङ्कर: ॥ ८ ॥
ययौ भूमण्डलं द्रष्टुं गौर्याश्चित्राणि दर्शयन् ।
क्वचिद् विन्ध्याचलप्रान्ते महारण्ये सुदुर्गमे ॥ ९ ॥
तत्र व्याहन्तुमायान्तं भिल्लं परशुधारिणम् ।
वध्यमानं महाव्याघ्रं नखदंष्ट्राभिरावृतम् ॥ १० ॥
अतीव चित्रचारित्र्यं वज्रकायसमायुतम् ।
अप्रयत्नमनायासमखिन्नं सुखमास्थितम् ॥ ११ ॥
पलायन्तं मृगं पश्चाद् व्याघ्रो भीत्या पलायित: ।
एतदाश्चर्यमालोक्य पार्वती प्राह शङ्करम् ॥ १२ ॥
पार्वत्युवाच
किमाश्चर्यं किमाश्चर्यमग्ने शम्भो निरीक्ष्यताम् ।
इत्युक्त: स तत: शम्भूर्दृष्ट्वा प्राह पुराणवित् ॥ १३ ॥
श्रीशङ्कर उवाच
गौरि वक्ष्यामि ते चित्रमवाङ्मनसगोचरम् ।
अदृष्टपूर्वमस्माभिर्नास्ति किञ्चिन्न कुत्रचित् ॥ १४ ॥
मया सम्यक् समासेन वक्ष्यते श्रृणु पार्वति ।
अयं दूरश्रवा नाम भिल्ल: परमधार्मिक: ॥ १५ ॥
समित्कुशप्रसूनानि कन्दमूलफलादिकम् ।
प्रत्यहं विपिनं गत्वा समादाय प्रयासत: ॥ १६ ॥
प्रिये पूर्वं मुनीन्द्रेभ्य: प्रयच्छति न वाञ्छति ।
तेऽपि तस्मिन्नपि दयां कुर्वते सर्वमौनिन: ॥ १७ ॥
दलादनो महायोगी वसन्नेव निजाश्रमे ।
कदाचिदस्मरत् सिद्धम दत्तात्रेयं दिगम्बरम् ॥ १८ ॥
दत्तात्रेय: स्मर्तृगामी चेतिहासं परीक्षितुम ।
तत्क्षणात्सोऽपि योगीन्द्रो दत्तात्रेय: समुत्थित: ॥ १९ ॥
तं दृष्ट्वाऽऽश्चर्यतोषाभ्यां दलादनमहामुनि: ।
सम्पूज्याग्रे निषीदन्तं दत्तात्रेयमुवाच तम् ॥ २० ॥
मयोपहूत: सम्प्राप्तो दत्तात्रेय महामुने ।
स्मर्तृगामी त्वमित्येतत् किंवदन्तीं परीक्षितुम् ॥ २१ ॥
मयाद्य संस्मृतोऽसि त्वमपराधं क्षमस्व मे ।
दत्तात्रेयो मुनिं प्राह मम प्रकृतिरीदृशी ॥ २२ ॥
अभक्त्या वा सुभक्त्या वा य: स्मरेन्मामनन्यधी: ।
तदानीं तमुपागत्य ददामि तदभीप्सितम् ॥ २३ ॥
दत्तात्रेयो मुनि: प्राह दलादनमुनीश्वरम् ।
यदिष्टं तद् वृणीष्व त्वं यत् प्राप्तोऽहं त्वया स्मृत: ॥ २४ ॥
दत्तात्रेयं मुनि: प्राह मया किमपि नोच्यते ।
त्वच्चित्ते यत्स्थितं तन्मे प्रयच्छ मुनिपुङ्गव ॥ २५ ॥
ममास्ति वज्रकवचं गृहाणेत्यवदन्मुनिम् ।
तथेत्यङ्गिकृतवते दलादमुनये मुनि: ॥ २६ ॥
स्ववज्रकवचं प्राह ऋषिच्छन्द:पुर:सरम् ।
न्यासं ध्यानं फलं तत्र प्रयोजनमशेषत: ॥ २७ ॥
अथ विनियोगादि :
अस्य श्रीदत्तात्रेयवज्रकवचस्तोत्रमन्त्रस्य किरातरूपी महारुद्र ऋषि:, अनुष्टप् छन्द:,
श्रीदत्तात्रेयो देवता, द्रां बीजम्, आं शक्ति:, क्रौं कीलकम्, ॐ आत्मने नम: ।
ॐ द्रीं मनसे नम: । ॐ आं द्रीं श्रीं सौ: ॐ क्लां क्लीं क्लूं क्लैं क्लौं क्ल: ।
श्रीदत्तात्रेयप्रसादसिद्ध्यर्थे जपे विनियोग: ॥ ॐ द्रां अङ्गुष्ठाभ्यां नम: ।
ॐ द्रीं तर्जनीभ्यां नम: । ॐ द्रूं मध्यमाभ्यां नम: ।
ॐ द्रैं अनामिकाभ्यांनम: । ॐ द्रौं कनिष्ठिकाभ्यांनम: ।
ॐद्र: करतलकरपृष्ठाभ्यां नम: । ॐ द्रां ह्रदयाय नम: । ॐ द्रीं शिरसे स्वाहा ।
ॐ द्रूं शिखायै वषट् । ॐ द्रैं कवचाय हुम् । ॐ द्रौं नेत्रत्रयाय वौषट् ।
ॐ द्र: अस्त्राय फट् । ॐ भूर्भुव:स्वरोम् इरि दिग्बन्ध: ।
अथ ध्यानम्
जगदङ्कुरकन्दाय सच्चिदानन्दमूर्तये ।
दत्तात्रेयाय योगीन्द्रचन्द्राय परमात्मने (नम:) ॥ १ ॥
कदा योगी कदा भोगी कदा नग्न: पिशाचवत्।
दत्तात्रेयो हरि: साक्षाद् भुक्तिमुक्तिप्रदायक: ॥ २ ॥
वाराणसीपुरस्नायी कोल्हापुरजपादर:
माहुरीपुरभिक्षाशी सह्यशायी दिगम्बर: ॥ ३ ॥
इन्द्रनीलसमाकारश्चन्द्रकान्तसमद्युति: ।
वैदुर्यसदृशस्फूर्तिश्चलत्किञ्चिज्जटाधर: ॥ ४ ॥
स्निग्धधावल्ययुक्ताक्षोऽत्यन्तनीलकनीनिक: ।
भ्रूवक्ष:श्मश्रुनीलाङ्क: शशाङ्कसदृशानन: ॥ ५ ॥
हासनिर्जितनीहार: कण्ठनिर्जितकम्बुक: ।
मांसलांसो दीर्घबाहु: पाणिनिर्जितपल्लव: ॥ ६ ॥
विशालपीनवक्षाश्च ताम्रपाणिर्दरोदर: ।
पृथुलश्रोणिललितो विशालजघनस्थल: ॥ ७ ॥
रम्भास्तम्भोपमानोरूर्जानुपूर्वैकजंघक: ।
गूढगुल्फ: कूर्मपृष्ठो लसत्पादोपरिस्थल: ॥ ८ ॥
रक्तारविन्दसदृशरमणीयपदाधर: ।
चर्माम्बरधरो योगी स्मर्तृगामी क्षणे क्षणे ॥ ९ ॥
ज्ञानोपदेशनिरतो विपद्धरनदीक्षित: ।
सिद्धासनसमासीन ऋजुकायो हसन्मुख: ॥ १० ॥
वामह्स्तेन वरदो दक्षिणेनाभयंकर: ।
बालोन्मत्तपिशाचीभि: क्वचिद्युक्त: परीक्षित: ॥ ११ ॥
त्यागी भोगी महायोगी नित्यानन्दो निरञ्जन: ।
सर्वरूपी सर्वदाता सर्वग: सर्वकामद: ॥१२॥
भस्मोद्धूलितसर्वाङ्गो महापातकनाशन: ।
भुक्तिप्रदो मुक्तिदाता जीवन्मुक्तो न संशय: ॥ १३ ॥
एवं ध्यात्वाऽनन्यचित्तो मद्वज्रकवचं पठेत्।
मामेव पश्यन्सर्वत्र स मया सह संचरेत् ॥ १४ ॥
दिगम्बरं भस्मसुगन्धलेपनं चक्रं त्रिशूलम डमरुं गदायुधम् ।
पद्मासनं योगिमुनीन्द्रवन्दितं दत्तेति नामस्मरेणन नित्यम् ॥ १५ ॥
अथ पञ्चोपचारपूजा
ॐ नमो भगवते दत्तात्रेयाय लं पृथिवीगन्धतन्मात्रात्मकं चन्दनं परिकल्पयामि ।
ॐ नमो भगवते दत्तात्रेयायं हं आकाशशब्दतन्मात्रात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि ।
ॐ नमो भगवते दत्तात्रेयाय यं वायुस्पर्शतन्मात्रात्मकं धूपं परिकल्पयामि ।
ॐ नमो भगवते दत्तात्रेयाय रं तेजोरूपतन्मात्रात्मकं दीपं परिकल्पयामि ।
ॐ नमोभगवते दत्तात्रेयाय वं अमृतरसत्नमात्रात्मकं नैवेद्यं परिकल्पयामि ।
ॐ द्रां’ इति मन्त्रम् अष्टोत्तरशतवारं (१०८) जपेत्।)
अथ वज्रकवचम्
ॐ दत्तात्रेय: शिर: पातु सहस्त्राब्जेषु संस्थित: ।
भालं पात्वानसूयेयश्चन्द्रमण्डलमध्यग: ॥ १ ॥
कूर्चं मनोमय: पातु हं क्षं द्विदलपद्मभू: ।
ज्योतीरूपोऽक्षिणी पातु पातु शब्दात्मक: श्रुती ॥ २ ॥
नासिकां पातु गन्धात्मा मुखं पातु रसात्मक: ।
जिह्वां वेदात्मक: पातु दन्तोष्ठौ पातु धार्मिक: ॥३॥
कपोलावत्रिभू: पातु पात्वशेषं ममात्मवित्।
स्वरात्मा षोडशाराब्जस्थित: स्वात्माऽवताद्ग्लम्॥४॥
स्कन्धौ चन्द्रानुज: पातु भुजौ पातु कृतादिभू: ।
जत्रुणी शत्रुजित् पातु पातु वक्ष:स्थलं हरि: ॥५॥
कादिठान्तद्वादशारपद्म्गो मरुदात्मक: ।
योगीश्वरेश्वर: पातु ह्रदयं ह्रदयस्थित: ॥ ६ ॥
पार्श्वे हरि: पार्श्ववर्ती पातु पार्श्वस्थित: स्मृत: ।
हठयोगादियोगज्ञ: कुक्षी पातु कृपानिधि: ॥७॥
डकारादिफकारान्तदशारसरसीरुहे ।
नाभिस्थले वर्तमानो नाभिं वह्वयात्मकोऽवतु ॥८॥
वह्नितत्त्वमयो योगी रक्षतान्मणिपूरकम्।
कटिं कटिस्थब्रह्माण्डवासुदेवात्मकोऽवतु ॥९॥
बकारादिलकारान्तषट्प्त्राम्बुजबोधक: ।
जलतत्त्वमयो योगी स्वाधिष्ठानं ममावतु ॥ १० ॥
सिद्धासनसमासीन ऊरू सिद्धेश्वरोऽवतु ।
वादिसान्तचतुष्पत्रसरोरुहनिबोधक: ॥ ११ ॥
मूलाधारं महीरूपो रक्षताद्वीर्यनिग्रही ।
पृष्ठं च सर्वत: पातु जानुन्यस्तकराम्बुज: ॥१२॥
जङ्घे पत्ववधूतेन्द्र: पात्वङ्घ्री तीर्थपावन; ।
सर्वाङ्गं पातु सर्वात्मा रोमाण्यवतु केशव: ॥१३॥
चर्म चर्माम्बर: पातु रक्तं भक्तिप्रियोऽवतु ।
मांसं मांसकर: पातु मज्जां मज्जात्मकोऽवतु ॥१४॥
अस्थीनि स्थिरधी: पायान्मेधां वेधा: प्रपालयेत्।
शुक्रं सुखकर: पातु चित्तं पातु दृढाकृति: ॥ १५॥
मनोबुद्धिमहंकारम ह्रषीकेशात्मकोऽवतु ।
कर्मेन्द्रियाणि पात्वीश: पातु ज्ञानेन्द्रियाण्यज: ॥१६॥
बन्धून बन्धूत्तम: पायाच्छत्रुभ्य: पातु शत्रुजित्
गृहारामधनक्षेत्रपुत्रादीञ्छ्ङ्करोऽवतु ॥१७॥
भार्यां प्रकृतिवित्पातु पश्वादीन्पातु शार्ङ्गभृत् ।
प्राणान्पातु प्रधानज्ञो भक्ष्यादीन्पातु भास्कर: ॥१८॥
सुखं चन्द्रात्मक: पातु दु:खात्पातु पुरान्तक: ।
पशून्पशुपति: पातु भूतिं भुतेश्वरो मम ॥१९॥
प्राच्यां विषहर: पातु पात्वाग्नेय्यां मखात्मक: ।
याम्यां धर्मात्मक: पतु नैऋत्यां सर्ववैरिह्रत्।२०॥
वराह: पातु वारुण्यां वायव्यां प्राणदोऽवतु ।
कौबेर्यां धनद: पातु पात्वैशान्यां महागुरु: ॥२१॥
ऊर्ध्व पातु महासिद्ध: पात्वधस्ताज्जटाधर: ।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं रक्षत्वादिमुनीश्वर: ॥२२॥
‘
ॐ द्रां’ मन्त्रजप:, ह्रदयादिन्यास: च ।एतन्मे वज्रकवचं य: पठेच्छृणुयादपि ।
वज्रकायश्चिरञ्जीवी दत्तात्रेयोऽहमब्रुवम्॥२३॥
त्यागी भोगी महायोगी सुखदु:खविवर्जित: ।
सर्वत्रसिद्धसंकल्पो जीवन्मुक्तोऽथ वर्तते ॥२४॥
इत्युक्त्वान्तर्दधे योगी दत्तात्रेयो दिगम्बर: ।
दलादनोऽपि तज्जप्त्वा जीवन्मुक्त: स वर्तते ॥ २५ ॥
भिल्लो दूरश्रवा नाम तदानीं श्रुतवानिदम्।
सकृच्छ्र्वणमात्रेण वज्राङ्गोऽभवदप्यसौ ॥२६॥
इत्येतद्वज्रकवचं दत्तात्रेयस्य योगिन: ।
श्रुत्वाशेषं शम्भुमुखात् पुनरप्याह पार्वती ॥२७॥
पार्वत्युवाच
एतत्कवचमाहात्म्यम वद विस्तरतो मम ।
कुत्र केन कदा जाप्यं किं यज्जाप्यं कथं कथम्॥२८॥
उवाच शम्भुस्तत्सर्वं पार्वत्या विनयोदितम्।
श्रीशिव उवाच
श्रृणु पार्वति वक्ष्यामि समाहितमनविलम्॥२९॥
धर्मार्थकाममोक्षणामिदमेव परायणम् ।
हस्त्यश्वरथपादातिसर्वैश्वर्यप्रदायकम्॥३०॥
पुत्रमित्रकलत्रादिसर्वसन्तोषसाधनम् ।
वेदशास्त्रादिविद्यानां निधानं परमं हि तत्॥३१॥
सङ्गितशास्त्रसाहित्यसत्कवित्वविधायकम्।
बुद्धिविद्यास्मृतिप्रज्ञामतिप्रौढिप्रदायकम्॥३२॥
सर्वसंतोषकरणं सर्वदु:खनिवारणम् ।
शत्रुसंहारकं शीघ्रं यश:कीर्तिविवर्धनम् ॥३३॥
अष्टसंख्या: महारोगा: सन्निपातास्त्रयोदश ।
षण्णवत्यक्षिरोगाश्च विंशतिर्मेहरोगका: ॥३४॥
अष्टादश तु कुष्ठानि गुल्मान्यष्टविधान्यपि ।
अशीतिर्वातरोगाश्च चत्वारिंशत्तु पैत्तिका: ॥३५॥
विंशति: श्लेष्मरोगाश्च क्षयचातुर्थिकादय: ।
मन्त्रयन्त्रकुयोगाद्या: कल्पतन्त्रादिनिर्मिता: ॥३६॥
ब्रह्मराक्षसवेतालकूष्माण्डादिग्रहोद्भनवा: ।
संगजा देशकालस्थास्तापत्रयसमुत्थिता: ॥३७ ॥
नवग्रहसमुद्भू्ता महापातकसम्भवा: ।
सर्वे रोगा: प्रणश्यन्ति सहस्त्रावर्तनाद्ध्रु वम्॥ ३८ ॥
अयुतावृत्तिमात्रेण वन्ध्या पुत्रवती भवेत्।
अयुतद्वितयावृत्त्या ह्यपमृत्युजयो भवेत्॥३९॥
अयुतत्रितयाच्चैव खेचरत्वं प्रजायते ।
सहस्त्रादयुतादर्वाक् सर्वकार्याणि साधयेत्॥४०॥
लक्षावृत्त्या कार्यसिद्धिर्भवत्येव न संशय: ॥४१॥
विषवृक्षस्य मूलेषु तिष्ठन् वै दक्षिणामुख: ।
कुरुते मासमात्रेण वैरिणं विकलेन्द्रियम्॥४२॥
औदुम्बरतरोर्मूले वृद्धिकामेन जाप्यते ।
श्रीवृक्षमूले श्रीकामी तिन्तिणी शान्तिकर्मणि ॥४३॥
ओजस्कामोऽश्वत्थमूले स्त्रीकामै: सहकारके ।
ज्ञानार्थी तुलसीमूले गर्भगेहे सुतार्थिभि: ॥४४॥
धनार्थिभिस्तु सुक्षेत्रे पशुकामैस्तु गोष्ठके ।
देवालये सर्वकामैस्तत्काले सर्वदर्शितम्॥४५॥
नाभिमात्रजले स्थित्वा भानुमालोक्य यो जपेत्।
युद्धे वा शास्त्रवादे वा सहस्त्रेन जयो भवेत्॥४६॥
कण्ठमात्रे जले स्थित्वा यो रात्रौ कवचं पठेत्।
ज्वरापस्मारकुष्ठादितापज्वरनिवारणम्॥४७॥
यत्र यत्स्यात्स्थिरं यद्यत्प्रसक्तं तन्निवर्तते ।
तेन तत्र हि जप्तव्यं तत: सिद्धिर्भवेद्ध्रु वम्॥४८ ॥
इत्युक्तवान् शिवो गौर्ये रहस्यं परमं शुभम्।
य: पठेद् वज्रकवचं दत्तात्रेयसमो भवेत्॥४९॥
एवम शिवेन कथितं हिमवत्सुतायै।
प्रोक्तं दलादमुनयेऽत्रिसुतेन पूर्वम्।
य: कोऽपि वज्रकवचं पठतीह लोके
दत्तोपमश्र्चरति योगिवरश्र्चिरायु: ॥५०॥
||इति श्रीरुद्रयामले हिमवत्खण्डे मन्त्रशास्त्रे उमामहेश्वरसंवादे
श्रीदत्तात्रेयवज्रकवचस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
15….
.हरिद्रा गणपति मां बगलामुखी के अंग देवता है। इसलिए जो साधक बगलामुखी की आराधना करते हैं, उन्हें हरिद्रा गणपति की साधना, पूजा अवश्य करनी चाहिए। इनकी साधना करने से शत्रु का हृदय द्रवित होकर साधक के वशीभूत हो जाता है। इनकी साधना अभिचारिक कर्म को भी नष्ट करने के लिए की जाती है। यही कारण है कि मां त्रिपुरसुन्दरी के द्वारा स्मरण किये जाने पर हरिद्रा गणपति ने प्रकट होकर भण्डासुर दैत्य के द्वारा किये गये अभिचार यंत्र को नष्ट कर दिया था।
हरिद्रा हल्दी को कहा जाता है। सभी साधक जानते हैं कि विवाह आदि जैसे मंगल कार्यो में हल्दी पाउडर के लेप का प्रयोग किया जाता है। उसका कारण यह है कि हल्दी को अति शुभ, सुख-सौभाग्य दायक एवं विघ्न विनाशक माना जाता है। हल्दी अनेकों बीमारियों में भी अचूक अस्त्र की भांति कार्य करती है। इसीलिए हरिद्रा गणपति को अत्यन्त ही शुभ माना जाता है। काम्य प्रयोग में विशेष रूप से इनकी साधना मनवांछित विवाह, पुत्र प्राप्ति, मनोवांछित फल प्राप्ति एवं शत्रु को वश में करने के लिए की जाती है।
16…“सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।
भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥
एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।
पातु न: सर्वभीतिभ्य: कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥
ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥
अर्थ :- सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्ति यों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है। कात्यायनी! यह तीन लोचनों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है। भद्रकाली! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होनेवाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरों का संहार करनेवाला तुम्हारा त्रिशूल भय से हमें बचाये। तुम्हें नमस्कार है।
हरिद्रा हल्दी को कहा जाता है। सभी साधक जानते हैं कि विवाह आदि जैसे मंगल कार्यो में हल्दी पाउडर के लेप का प्रयोग किया जाता है। उसका कारण यह है कि हल्दी को अति शुभ, सुख-सौभाग्य दायक एवं विघ्न विनाशक माना जाता है। हल्दी अनेकों बीमारियों में भी अचूक अस्त्र की भांति कार्य करती है। इसीलिए हरिद्रा गणपति को अत्यन्त ही शुभ माना जाता है। काम्य प्रयोग में विशेष रूप से इनकी साधना मनवांछित विवाह, पुत्र प्राप्ति, मनोवांछित फल प्राप्ति एवं शत्रु को वश में करने के लिए की जाती है।
16…“सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।
भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥
एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।
पातु न: सर्वभीतिभ्य: कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥
ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥
अर्थ :- सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्ति यों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है। कात्यायनी! यह तीन लोचनों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है। भद्रकाली! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होनेवाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरों का संहार करनेवाला तुम्हारा त्रिशूल भय से हमें बचाये। तुम्हें नमस्कार है।
लोक कल्याण कारक शाबर मन्त्र
लोक कल्याण-कारक शाबर मन्त्र
१॰ अरिष्ट-शान्ति अथवा अरिष्ट-नाशक मन्त्रः-
क॰ “ह्रीं हीं ह्रीं”
ख॰ “ह्रीं हों ह्रीं”
ग॰ “ॐ ह्रीं फ्रीं ख्रीं”
घ॰ “ॐ ह्रीं थ्रीं फ्रीं ह्रीं”
विधिः-उक्त मन्त्रों में से किसी भी एक मन्त्र को सिद्ध करें । ४० दिन तक प्रतिदिन १ माला जप करने से मन्त्र सिद्ध होता है । बाद में संकट के समय मन्त्र का जप करने से सभी संकट समाप्त हो जाते हैं ।
२॰ सर्व-शुभ-दायक मन्त्रः-
मन्त्र - ” ॐ ख्रीं छ्रीं ह्रीं थ्रीं फ्रीं ह्रीं ।”
विधिः- उक्त मन्त्र का सदैव स्मरण करने से सभी प्रकार के अरिष्ट दूर होते हैं । अपने हाथ में रक्त पुष्प (कनेर या गुलाब) लेकर उक्त मन्त्र का १०८ बार जप कर अपनी इष्ट-देवी पर चढ़ाए अथवा अखण्ड भोज-पत्र पर उक्त मन्त्र को दाड़िम की कलम से चन्दन-केसर से लिखें और शुभ-योग में उसकी पञ्चोपचारों से पूजा करें ।
३॰ अशान्ति-निवारक-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ क्षौं क्षौं ।”
विधिः- उक्त मन्त्र के सतत जप से शान्ति मिलती है । कुटुम्ब का प्रमुख व्यक्ति करे, तो पूरे कुटुम्ब को शान्ति मिलती है ।
४॰ शान्ति, सुख-प्राप्ति-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ ह्रीं सः हीं ठं ठं ठं ।”
विधिः- शुभ योग में उक्त मन्त्र का १२५ माला जप करे । इससे मन्त्र-सिद्धि होगी । बाद में दूध से १०८ अहुतियाँ दें, तो शान्ति, सुख, बल-बुद्धि की प्राप्ति होती है ।
५॰ रोग-शान्ति-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं फट् ।”
विधिः- उक्त मन्त्र का ५०० बार जप करने से रोग-निवारण होता है । प्रतिदिन जप करने से सु-स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । कुटुम्ब में रोग की समस्या हो, तो कुटुम्ब का प्रधान व्यक्ति उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित जल को रोगी के रहने के स्थान में छिड़के । इससे रोग की शान्ति होगी । जब तक रोग की शान्ति न हो, तब तक प्रयोग करता रहे ।
६॰ सर्व-उपद्रव-शान्ति-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ घण्टा-कारिणी महा-वीरी सर्व-उपद्रव-नाशनं कुरु कुरु स्वाहा ।”
विधिः- पहले इष्ट-देवी को पूर्वाभिमुख होकर धूप-दीप-नैवेद्य अर्पित करें । फिर उक्त मन्त्र का ३५०० बार जप करें । बाद में पश्चिमाभिमुख होकर गुग्गुल से १००० आहुतियाँ दें । ऐसा तीन दिन तक करें । इससे कुटुम्ब में शान्ति होगी ।
७॰ ग्रह-बाधा-शान्ति मन्त्रः-
मन्त्रः- “ऐं ह्रीं क्लीं दह दह ।”
विधिः- सोम-प्रदोष से ७ दिन तक, माल-पुआ व कस्तूरी से उक्त मन्त्र से १०८ आहुतियाँ दें । इससे सभी प्रकार की ग्रह-बाधाएँ नष्ट होती हैं ।
८॰ देव-बाधा-शान्ति-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ सर्वेश्वराय हुम् ।”
विधिः- सोमवार से प्रारम्भ कर नौ दिन तक उक्त मन्त्र का ३ माला जप करें । बाद में घृत और काले-तिल से आहुति दें । इससे दैवी-बाधाएँ दूर होती हैं और सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है
हनुमान चुटकी मंत्र साधना
इसे आप दीपावली के दिन अथवा किसी भी सामान्य रात्रि में कभी भी सिद्ध कर सकते है | किन्तु 12 से 1 बजे तक का समय न चुने, और कोई भी टाइम चलेगा | आसन कोई भी ले सकते हैं। वैसे कुशा का आसन सर्वोत्तम है |
इस साधना को करने के लिए पास किसी भी हनुमान जी के मंदिर में जाये | एक सरसों के तेल का दिया जला दे जो जब तक आपका मंत्र जप पूरा न हो दिया जलता रहना चाहिए | इस लिए एक बड़ा दिया ले लें | सवा मीटर लाल कपड़ा जो आपको हनुमान जी को लगोट के रूप में अर्पण करना है और सवा किलो लड्डू किसी भी तरह के ले ले | एक बात हमेशा याद रखे हनुमान जी को भोग अर्पण करते समय हमेशा एक तुलसी दल भोग के उपर रख देना चाहिए तभी उनकी क्षुधा शांत होती है |माला मूँगे की अथवा रुद्राक्ष की ले | आपको एक माला मंत्र जाप करना है | प्रसाद व लाल वस्त्र वही हनुमान जी के चरणों में छोड़ दे और अपनी व परिवार की रक्षा के लिए प्रार्थना करे और घर आ जाए |
इतना ही नहीं जब साधक साधना पर बैठे साधना में आने वाले विघ्न जैसे की निद्रा आलस्य और अंजाना भय भी उसी वक़्त दूर होता है | | इस लिए इसे आप स्व परख ले और लाभ देख सकते है | सिद्धि कोई भी हो साधक की मनोदशा पर निर्भर करती होती है | यह मंत्र आपको किसी किताब से नहीं मिलेगा क्यू के ऐसे मंत्र किताबों में बहुत कम मिलते है |
साबर चुटकी मंत्र-
ॐ नमो गुरु जी चुटकी दाये चुटकी बाये,
चुटकी रक्षा करे हर थाएं |
बजर का कोठा अजर कबाड़ ,
चुटकी बांधे दसो दुयार ||
जो कोई घाले मुझ पे घाल उलटत देव वही पर जाए |
हनुमान जी चुटकी बजाए ,
राम चंदर पछताये, सीता माता भोग बनाया हनुमान मुसकाये |
माता अंजनी की आन ,
चुटकी रक्षा करो तमाम |
जय हनुमान, जय हनुमान, जय हनुमान ||
प्रयोग विधि --
सिद्ध करने के बाद जब भी जरूरत हो एक वार मंत्र पढ़ के तीन वार चुटकी वज़ा दे | एक वार दाये एक वार बाये एक वार सिर के उपर उसी वक़्त रक्षा होगी |
लोक कल्याण-कारक शाबर मन्त्र
१॰ अरिष्ट-शान्ति अथवा अरिष्ट-नाशक मन्त्रः-
क॰ “ह्रीं हीं ह्रीं”
ख॰ “ह्रीं हों ह्रीं”
ग॰ “ॐ ह्रीं फ्रीं ख्रीं”
घ॰ “ॐ ह्रीं थ्रीं फ्रीं ह्रीं”
विधिः-उक्त मन्त्रों में से किसी भी एक मन्त्र को सिद्ध करें । ४० दिन तक प्रतिदिन १ माला जप करने से मन्त्र सिद्ध होता है । बाद में संकट के समय मन्त्र का जप करने से सभी संकट समाप्त हो जाते हैं ।
२॰ सर्व-शुभ-दायक मन्त्रः-
मन्त्र - ” ॐ ख्रीं छ्रीं ह्रीं थ्रीं फ्रीं ह्रीं ।”
विधिः- उक्त मन्त्र का सदैव स्मरण करने से सभी प्रकार के अरिष्ट दूर होते हैं । अपने हाथ में रक्त पुष्प (कनेर या गुलाब) लेकर उक्त मन्त्र का १०८ बार जप कर अपनी इष्ट-देवी पर चढ़ाए अथवा अखण्ड भोज-पत्र पर उक्त मन्त्र को दाड़िम की कलम से चन्दन-केसर से लिखें और शुभ-योग में उसकी पञ्चोपचारों से पूजा करें ।
३॰ अशान्ति-निवारक-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ क्षौं क्षौं ।”
विधिः- उक्त मन्त्र के सतत जप से शान्ति मिलती है । कुटुम्ब का प्रमुख व्यक्ति करे, तो पूरे कुटुम्ब को शान्ति मिलती है ।
४॰ शान्ति, सुख-प्राप्ति-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ ह्रीं सः हीं ठं ठं ठं ।”
विधिः- शुभ योग में उक्त मन्त्र का १२५ माला जप करे । इससे मन्त्र-सिद्धि होगी । बाद में दूध से १०८ अहुतियाँ दें, तो शान्ति, सुख, बल-बुद्धि की प्राप्ति होती है ।
५॰ रोग-शान्ति-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं क्षीं फट् ।”
विधिः- उक्त मन्त्र का ५०० बार जप करने से रोग-निवारण होता है । प्रतिदिन जप करने से सु-स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । कुटुम्ब में रोग की समस्या हो, तो कुटुम्ब का प्रधान व्यक्ति उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित जल को रोगी के रहने के स्थान में छिड़के । इससे रोग की शान्ति होगी । जब तक रोग की शान्ति न हो, तब तक प्रयोग करता रहे ।
६॰ सर्व-उपद्रव-शान्ति-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ घण्टा-कारिणी महा-वीरी सर्व-उपद्रव-नाशनं कुरु कुरु स्वाहा ।”
विधिः- पहले इष्ट-देवी को पूर्वाभिमुख होकर धूप-दीप-नैवेद्य अर्पित करें । फिर उक्त मन्त्र का ३५०० बार जप करें । बाद में पश्चिमाभिमुख होकर गुग्गुल से १००० आहुतियाँ दें । ऐसा तीन दिन तक करें । इससे कुटुम्ब में शान्ति होगी ।
७॰ ग्रह-बाधा-शान्ति मन्त्रः-
मन्त्रः- “ऐं ह्रीं क्लीं दह दह ।”
विधिः- सोम-प्रदोष से ७ दिन तक, माल-पुआ व कस्तूरी से उक्त मन्त्र से १०८ आहुतियाँ दें । इससे सभी प्रकार की ग्रह-बाधाएँ नष्ट होती हैं ।
८॰ देव-बाधा-शान्ति-मन्त्रः-
मन्त्रः- “ॐ सर्वेश्वराय हुम् ।”
विधिः- सोमवार से प्रारम्भ कर नौ दिन तक उक्त मन्त्र का ३ माला जप करें । बाद में घृत और काले-तिल से आहुति दें । इससे दैवी-बाधाएँ दूर होती हैं और सुख-शान्ति की प्राप्ति होती है
हनुमान चुटकी मंत्र साधना
इसे आप दीपावली के दिन अथवा किसी भी सामान्य रात्रि में कभी भी सिद्ध कर सकते है | किन्तु 12 से 1 बजे तक का समय न चुने, और कोई भी टाइम चलेगा | आसन कोई भी ले सकते हैं। वैसे कुशा का आसन सर्वोत्तम है |
इस साधना को करने के लिए पास किसी भी हनुमान जी के मंदिर में जाये | एक सरसों के तेल का दिया जला दे जो जब तक आपका मंत्र जप पूरा न हो दिया जलता रहना चाहिए | इस लिए एक बड़ा दिया ले लें | सवा मीटर लाल कपड़ा जो आपको हनुमान जी को लगोट के रूप में अर्पण करना है और सवा किलो लड्डू किसी भी तरह के ले ले | एक बात हमेशा याद रखे हनुमान जी को भोग अर्पण करते समय हमेशा एक तुलसी दल भोग के उपर रख देना चाहिए तभी उनकी क्षुधा शांत होती है |माला मूँगे की अथवा रुद्राक्ष की ले | आपको एक माला मंत्र जाप करना है | प्रसाद व लाल वस्त्र वही हनुमान जी के चरणों में छोड़ दे और अपनी व परिवार की रक्षा के लिए प्रार्थना करे और घर आ जाए |
इतना ही नहीं जब साधक साधना पर बैठे साधना में आने वाले विघ्न जैसे की निद्रा आलस्य और अंजाना भय भी उसी वक़्त दूर होता है | | इस लिए इसे आप स्व परख ले और लाभ देख सकते है | सिद्धि कोई भी हो साधक की मनोदशा पर निर्भर करती होती है | यह मंत्र आपको किसी किताब से नहीं मिलेगा क्यू के ऐसे मंत्र किताबों में बहुत कम मिलते है |
साबर चुटकी मंत्र-
ॐ नमो गुरु जी चुटकी दाये चुटकी बाये,
चुटकी रक्षा करे हर थाएं |
बजर का कोठा अजर कबाड़ ,
चुटकी बांधे दसो दुयार ||
जो कोई घाले मुझ पे घाल उलटत देव वही पर जाए |
हनुमान जी चुटकी बजाए ,
राम चंदर पछताये, सीता माता भोग बनाया हनुमान मुसकाये |
माता अंजनी की आन ,
चुटकी रक्षा करो तमाम |
जय हनुमान, जय हनुमान, जय हनुमान ||
प्रयोग विधि --
सिद्ध करने के बाद जब भी जरूरत हो एक वार मंत्र पढ़ के तीन वार चुटकी वज़ा दे | एक वार दाये एक वार बाये एक वार सिर के उपर उसी वक़्त रक्षा होगी |
सियार सिंगी
सियार सिंगी बहुत ही चमत्कारी वस्तु होती है , इसे घर में रखने से सकारात्मक उर्जा का अनुभव होता है ! सियार सिंगी बालो के एक गुच्छे कि तरह होती है ! असल में सियार के सींग नहीं होते परन्तु कुछ सियारों के नाक के ऊपर बालो का एक गुच्छा बन जाता है , धीरे धीरे वह कड़ा और बड़ा हो जाता है और सींग जैसा बन जाता है इसे सियार सिगी कहते है और यह हजारों में से किसी एक के नाक पर होता है ! इसमें वशीकरण की अद्भुत शक्ति होती है , यदि इसे सिद्ध कर लिया जाए तो यह शक्ति हजारों गुना बढ़ जाती है ! इसके द्वारा आप किसी से भी अपना मनोवांछित काम करवा सकते है ! इसे सिद्ध करने की अनेकों विधियाँ है - पर यदि इसे होली या दीपावली के दिन निम्न विधि से सिद्ध किया जाए तो इसका चमत्कार बड़ी जल्दी नज़र आता है !
आपके सबके लिए एक आसान और प्रमाणिक विधि जो बहुत प्रयासों के बाद मिल सकी है उसका उल्लेख मैं यहाँ कर रहा हूँ और उम्मीद करता हूँ कि यह आप लोगों के लिए उपयोगी होगी और माता महाकाली कि कृपा से आप लोग इसका लाभ ले पाएंगे ! यह विधि दीपावली से दस दिन पहले शुरू की जाती है मतलब दसवां दिन दीपावली होना चाहिये !
|| मन्त्र ||
ॐ चामुण्डाये नमः
|| विधि ||
दीपावली से दस दिन पहले एक सियार सिंगी का एक जोड़ा लें
उसे लाल कपडे पर स्थापित करे
लाल आसन बिछा कर लाल वस्त्र धारण कर बैठ जाएँ
सरसों के तेल का दीपक जलाएँ
सियार सिंगी पर गंगा जल छिड़कें
चावल चढ़ाएँ
पांच लौंग साबुत और पांच चोटी इलायची चढ़ाये
उपरोक्त मंत्र २१०० बार जप करे ! जप समाप्ति के बाद अग्नि में २१ आहुति गुग्गल की दे ! ऐसा रोज दीपावली तक करे।
दीपावली वाली रात पूजा के बाद इस नीचे लिखे मन्त्र का सियार सिंगी के सामने ११०० बार जाप करे।
दीपावली वाली रात पूजा के बाद इस नीचे लिखे मन्त्र का सियार सिंगी के सामने ११०० बार जाप करे।
|| मंत्र ||
रंगली पीढ़ी रंगले पावे
जित्थे पुकारा ओथे आवे
नाले अंग नाल अंग मिलावे
नाले घर दा घर खिलावे ।।
इस मन्त्र को जपने के बाद सियार सिंगी को किसी चांदी या ताम्बे की डिब्बी में मीठा सिन्दूर डाल कर उसमें पांच लौंग पांच इलायची और एक कपूर का छोटा सा टुकड़ा डाल कर रख ले !
|| प्रयोग विधि ||
जब किसी पर प्रयोग करना हो तो इस डिब्बी को खोल कर सियार सिंगी के सामने दोनों मन्त्रों का एक एक माला जाप करे और उस व्यक्ति का नाम बोल कर चामुंडा मां से उसे अपने अनुकूल करने की प्रार्थना करे और डब्बी को अपनी जेब में रखकर चले जाएँ - आपका कार्य सिद्ध हो जायेगा।
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